रविवार, 26 जुलाई 2020

#प्रियामृतावधेश #सच

#प्रियामृतावधेश
#सच

बच
पाया 
नहीं यहाँ
कोई उससे
हो चाहे गरीब 
मंत्री या फिर राजा 
भेद नहीं करता इनमें
लिंग जाति धर्म भाषा क्षेत्र  
सब एक जैसे उसकी नज़र में ।
शाख पत्ते जैसे हों  शज़र में  ।
सृजन पालन करता जो यहाँ
वही  संहार  का  कारण
प्रकृति के अपने नियम
इन्हीं से चलता सब
मान लो इन्हें
रह लो खुश
बोलो
सच

अवधेश सक्सेना-26072020

शनिवार, 25 जुलाई 2020

श्री राम किशोर वर्मा जी का एकल काव्य पाठ

एकल काव्य पाठ

#अवधेश की ग़ज़ल #आपको मुझ से कहो कोई शिकवा तो नहीं

#ग़ज़ल #अवधेश_की_ग़ज़ल 
#आपको_मुझ_से_कहो_कोई_शिकवा_तो_नहीं ।

आपको मुझ से कहो कोई शिकवा तो नहीं ।
ज़िंदगी कर दी हवाले चाहिए ज़्यादा तो नहीं ।

अब तुम्हारी ही तमन्ना में गुजरते रात दिन,
माँग लूँ तुमको कोई टूटता तारा तो नहीं ।

खूबसूरत वो बला की हो गया उस पे फिदा,
वो कभी मेरी बनेगी कहीं सपना तो नहीं ।

जान हाज़िर है हमारी बोल दो क्या चाहिए,
जो किया वो न निभाया ऐसा वादा तो नहीं ।

ख़्वाहिशें उसकी अजब हैं हो रहीं पूरी मगर,
आदमी है आम जैसा वो निराला तो नहीं ।

इक झलक अपनी दिखाकर वो कहीं फिर खो गया,
आसमाँ में जो चमकता वो सितारा तो नहीं ।

दिल बड़ा कमजोर है ये दे दिया तुमको मगर,
खेल कर तोड़ते हो तुम ये खिलौना तो नहीं ।

अवधेश सक्सेना-25072020

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

#अवधेश_की_ग़ज़ल #बेवफाओं_से_प्यार_कौन_करे

#अवधेश_की_ग़ज़ल
#बेवफाओं_से_प्यार_कौन_करे

बेवफाओं से प्यार कौन करे ।
ज़िंदगी शर्मशार कौन करे ।

आप कहते जो वो नहीं करते,
आपका एतवार कौन करे ।

इश्क़ जब भी किया मिला धोखा,
फ़िर इसे बार-बार कौन करे ।

अब शिकारी कहीं नहीं मिलते,
शेरनी का शिकार कौन करे ।

आग दिल की लगी जला देगी,
आपको होशियार कौन करे ।

जब बुलाया उन्हें नहीं आए,
उनका अब इंतज़ार कौन करे ।

वो नेता अब नज़र नहीं आते,
जंग अब आरपार कौन करे ।

अवधेश सक्सेना- 25072020
शिवपुरी म प्र

दोहे

दोहे

कितनी सुंदर वाटिका, खिलते सुंदर फूल ।
शूल हृदय के सब मिटें, चुभें नहीं अब शूल ।

भिन्न भाषा धर्म यहाँ, मिल कर बनता देश ।
देश बाग महका करे, कहे यही अवधेश ।

अवधेश सक्सेना- 19072020
💐💐🙏🙏

मुक्तक

#मुक्तक #क़तआ #शायरी 

खूबसूरत है बनाती रूह को ये शायरी ।
दूर रहती शायरों से हर हमेशा कायरी ।
हो वतन की बात या फ़िर प्यार वाले गीत हों,
हल लिखे मसले मिलें मेरी पढ़ो तुम डायरी ।

अवधेश सक्सेना-20072020

मनमोहन छंद पल पल में पग

#मनमोहन छंद
(विधान- 14 मात्राओं के चार चरण
8, 6 पर यति
अंत में नगण अनिवार्य
दो दो चरण या चारों चरण तुकांत ।)
1
पल पल में पग, रहे पलट ।
समस्या नहीं, रही सुलट ।
मन में होती, कसक-मसक ।
जाती उनकी, नहीं ठसक ।

2
चमके सोना, मिले तपन ।
सुगंध बिखरे, चले पवन ।
मिलकर भड़के, पवन अगन ।
सावन आया, जले वदन ।

3
आहुति डालो, करो हवन ।
सत्य सदा ही, करो कथन ।
मीठे बोलो, सदा वचन ।
कर लो अच्छे, यहाँ जतन ।

4
फूल खिले हैं, चमन-चमन ।
जग में आगे, रहे वतन ।
हर तरफा हो, चैन अमन ।
नहीं किसी का, करो दमन ।

5
वीरों को हम, करें नमन ।
गाएँ सब मिल, जन गण मन ।
कभी नहीं हो, अधोगमन ।
पीड़ाओं का, करो शमन ।

अवधेश सक्सेना-20072020

विजात छंद प्रथम पूजा विनायक की

#विजात_छंद
1222 1222

प्रथम पूजा विनायक की ।
करें हम लोक नायक की ।
गजानन भक्ति जो करते ।
जगत में वो नहीं डरते । 
धतूरा भाँग खाते जो ।
सदा धूनी रमाते जो ।
करें अभिषेक जल से हम ।
रहें भोले शरण हर दम ।
जिन्हें नंदी घुमाते हैं ।
वही शंकर कहाते हैं ।
हमें किस बात का डर है ।
हमारे साथ शिव हर है ।
शिवा का शेर वाहन है ।
शिवा रक्षक गजानन है ।
हिमालय की दुलारी है ।
शिवा माता हमारी है ।
रहें कैलाश पर भोले ।
शिवा से प्रेम से बोले ।
हमारे जो  सहारे हैं ।
हमें सब भक्त प्यारे हैं ।
महीना है बड़ा पावन ।
जिसे कहते यहाँ सावन ।
चढ़ाएं वेलपत्री हम  ।
जपें भोले कहें बम बम ।
अवधेश सक्सेना- 22072020

मनमोहन छंद जीतेंगे हम बड़ा समर

#मनमोहन_छंद
#जीतेंगे_हम_बड़ा_समर
1
अखबारों में, छपी खबर ।
चर्चा चलती, नगर नगर ।
कोरोना की, चली लहर ।
कैसा बरपा, रहा कहर ।
2
ताला बंदी, है घर घर ।
सब कुछ ही अब, गया ठहर ।
व्यवस्था हुई, है जर-जर ।
यहाँ हवा में, घुला जहर ।
3
पानी अंदर, रहे मगर ।
इसमें जाना, नहीं उतर ।
दुनिया काँपी, है थर थर ।
भीड़ हुई सब, तितर बितर ।
4
बम बम भोले, हे हर हर ।
नाम तुम्हारा, करे निडर ।
हमने है अब, रखा सबर ।
जीतेंगे हम, बड़ा समर ।

अवधेश सक्सेना-21072020

विजात छंद करो पूजा गजानन की


प्रियामृतावधेश


22 जुलाई के कवि सम्मेलन के समाचार








गुरुवार, 23 जुलाई 2020

प्रियामृतावधेश- श्रीमती सुदर्शन शर्मा

आज की उपस्थिति.. 
अवधेश भाई अवश्य देखने की कृपा करें और मेरी धृष्टता को क्षमा करके मार्ग दर्शन भी करें.

प्रियामृतावधेश छंद में 🙏🙏

कब
आसाँ
होता है
जीवन जीना 
हँस कर सब सहना
और अनवरत चलना
फिर भी कुछ तो ऐसा है
जब बोझा बोझ नही लगता
हँस हँस कर हर पीड़ा सहते हैं
और मुँह से कुछ नहीं कहते हैं.
क्यों कहना! सब तो अपने हैं, 
छोटी  सी  दुनिया  मेरी
वे  मेरे   सपने  हैं
मैं  खुश होती  हूँ
वे जो खुश हों
जीवन है
आसाँ
अब. 
*******
सुदर्शन शर्मा.

22 जुलाई के कवि सम्मेलन का समाचार

समाचार
प्रकाशनार्थ
****************************

अपनों ने अपने घर को लूटा- कवि महेंद्र भट्ट
अखिल भारतीय ऑनलाइन कवि सम्मेलन सम्पन्न

शिवपुरी /    / भारतीय साहित्य सृजन संस्थान शिवपुरी द्वारा आयोजित अखिल भारतीय ऑनलाइन कवि सम्मेलन में उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार,  राजस्थान,पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और मध्यप्रदेश के 21 कवियों ने भागीदारी कर 245 रचनाकारों की उपस्थिति में अपनी उत्कृष्ट रचनाओं की प्रस्तुति से श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया । संस्थान के अध्यक्ष शिवपुरी के वरिष्ठ साहित्यकार इंजी.अवधेश सक्सेना ने माँ शारदा को नमन कर सरस्वती वंदना की- " माँ शारदे देवी सुनो ये, वंदना जो गा रहे, हे ज्ञान की देवी तुम्हीं  से, ज्ञान को हम पा रहे" उन्होंने सभी रचनाकारों का स्वागत किया । कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए ग्वालियर के महेंद्र भट्ट ने अपनी कविता सुनाई " अपनों ने अपने घर को लूटा, शहर वालों ने शहर को लूटा" जयपुर के वरिष्ठ कवि राम किशोर वर्मा की प्रस्तुति "भारत माँ भी माँ होती है, जो हमको सब कुछ देती है" भवानी मंडी राजस्थान के डॉ राजेश कुमार शर्मा पुरोहित ने अपना प्यार बाँटते हुए सुनाया " मैं दीप हूँ जलता रहूँगा, प्यार बाँटता आया हूँ, प्यार बाँटता रहूँगा "  इंदौर की श्रीमती अलका जैन ने सुनाया " अंकित होंगे मेरे लहू से बर्वादी के अफसाने " पटियाला की सरिता नोहरिया ने तन्हाई के वारे में कहा " मैं तन्हा भी होती हूँ तो तन्हा नहीं होती, मेरे साथ साथ होती हैं तुम्हारी आँखें" करेरा के डॉ. ओम प्रकाश दुबे ने मन की बात की " मन ही शैतान बन जाता है, मन ही हैवान बन जाता है, मन को बदल दो तो इंसान बन जाता है " जबलपुर की कु. चंदा देवी स्वर्णकार ने माँ के ऊपर बहुत सुंदर कविता सुनाई, रामनगर एटा उत्तर प्रदेश से कृष्ण मुरारी लाल मानव ने अपना दर्द कुछ यूं बयाँ किया " एक प्यासी नदी की तरह दर बदर मैं भटकता रहा, मुझको पग पग मिलीं ठोकरें, बंधनों में लटकता रहा" मिर्जापुर से डॉ उषा कनक पाठक ने शाम का वर्णन करते हुए सुनाया " सभी जीव निज नीड़ को जाते, कृषक खेत से घर को आते, वसुधा क्षितिज एक हो जाते" हरदोई उत्तर प्रदेश के एडव्होकेट उदय राज सिंह ने अपना गीत सुनाया " सभी दूरियों को मिटाके चलेंगे, तुम्हें तो गले से लगा के रहेंगे " हिसार हरियाणा से श्री राजेश पुनिया विश्वबंधु ने अपना परिचय कुछ इस प्रकार से दिया "मानव हूँ मानवता के गीत सुनाया करता हूँ, नफरत दूर भगाकर दिल में प्रेम जगाया करता हूँ "  अंबेडकर नगर उत्तर प्रदेश से सर्वेश उपाध्याय की रचना देखें  " अज्ञान के अभिशाप को जग से मिटाना है हमें, ज्ञान का नव पुंज इस जग को दिखाना है हमें" प्रतापगढ़ राजस्थान के कमलेश शर्मा कमल ने बेटियों की चिंता करते हुए रचना प्रस्तुत की " इस देश में बेटी जनना अभिशाप समझा जाता है, जो माँ बेटी जनती है उसको पापी समझा जाता है " विदिशा के घरम सिंह मालवीय देश भक्ति की कविता सुनाते हुए फ़रमाते हैं " भारत देश है वीरों का और वीर प्रसूता भूमि है" सीतापुर से नितिन मिश्रा निश्छल ने भी देश भक्ति की रचना सुनाई " एकता से भरा इक चमन चाहिए, मुझको भारत ही अपना वतन चाहिए " जहानाबाद विहार की कविता देखें " जिंदगी चार दिन की है, इसे यूँ न जाया कर, मुहब्बत कर गुज़र तू भी, नफ़रत न लाया कर" कवि सम्मेलन में रुद्रपुर उत्तराखंड के 15 वर्षीय कक्षा 10 के छात्र बाल कवि सिब्बू सरकार ने अपनी कविता सुनाई " मेरा भारत जगत में सबसे अलग है, यहाँ पर सब कुछ अलग है, अलग है ।"
 कवि सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि  महेंद्र भट्ट ने भारतीय साहित्य सृजन संस्थान शिवपुरी के इस आयोजन को साहित्य के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण बताते हुए इसके उत्कृष्ट स्तर के आयोजन पर संस्थान के अध्यक्ष इंजी. अवधेश सक्सेना को बधाई दी । कवि सम्मेलन का सफलतम मंच  संचालन दिल्ली की कवयित्री श्रीमती रुचिका सक्सेना ने अत्यंत खूबसूरत अंदाज़ और मधुर आवाज़ में करते हुए कार्यक्रम में चार चाँद लगा दिये, सभी ने मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की । अंत में संस्थान की ओर से बैराड़ शिवपुरी के वरिष्ठ कवि सतीश दीक्षित किंकर ने उत्कृष्टतापूर्वक आभार प्रदर्शन किया ।

शनिवार, 18 जुलाई 2020

ग़ज़ल सोच से नफ़रत निकल कर जो गई

सोच से नफ़रत निकल कर जो गई ।
पाप तब गंगा हमारे धो गई ।

जागना था रात को भी साथ में,
नींद उसको आ गई वो सो गई ।

आपके इस नूर ने जादू किया,
रूह मेरी आप में ही खो गई ।

जब ज़रा घूंघट उठाया आपने,
रोशनी चारों तरफ़ तब हो गई ।

ये सियासत ही हुकूमत के लिए,
बीज नफ़रत के यहाँ पर बो गई ।

अवधेश सक्सेना -18072020

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

प्रियामृतावधेश पर टीप



#प्रियामृतावधेश #गरीब

मेरीमौलिक विधा #प्रियामृतावधेश  में कविता 
विधान
मात्राएँ पहली से नौंवी पंक्ति तक बढ़ते क्रम में
2,4,6,8,10,12,14,16,18- 
दसवीं से अठाहरवीं पंक्ति तक घटते क्रम में
18,16,14,12,10,8,6,4,2
पहली और अठाहरवीं पंक्ति तुकांत
नौंवीं और दसवीं पंक्ति तुकांत

#गरीब 

जो 
धरती
का टुकड़ा 
जोत कर यहाँ
रोटी  खाता था
उजाड़ा पीटा उसे
मर गया वो पी के जहर 
छोड़ रोते बिलखते बच्चे
इस व्यवस्था को बदलना होगा ।
राज अपने हाथ करना होगा ।
गरीब को दो गज जमीं नहीं
अमीर को आकाश मुफ़्त
सत्ताईस मंजिल मिले 
रोटी कमाना गलत
धन कमाना सही
उठो गरीबो
पहचानो
तुम क्या
हो ।

अवधेश सक्सेना- 17072020

मुक्तक

1222 1222 1222 1222 

मुक्तक 
उसी की अब तमन्ना  है  कभी जिसने रुलाया है,
उसी के नाम पर हमने नया इक घर बनाया है ।
मिली है हर खुशी हमको मगर उसकी कमी खलती,
उसे देने सभी खुशियाँ जहाँ हमने बसाया है ।

अवधेश सक्सेना
16072020

संस्मरण जा पर कृपा राम की ।

संस्मरण
जा पर कृपा की राम की
बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, सात दिन हो गए थे ।
आधा अगस्त निकल चुका था, कॉलेज में क्लास नहीं लग रहीं थीं, मेरी क्लास का अच्छा दोस्त अभी कुछ देर पहले ही मेरे पास बैठकर कुछ पढ़ाई की कुछ राजनीति की बातें करके गया था, कॉलेज में दूसरा साल था और इसी दोस्त ने ग्वालियर में अपने घर के पास मुझे एक मकान में कमरा किराये से दिलाया था, माँ को साथ में रखना था इसलिए हॉस्टल में न रहकर किराए के मकान में रहना जरूरी था । माँ खाना बना देती थीं और मैं अपनी पढ़ाई करता रहता था । सरकारी स्कूल से  हिंदी मीडियम में हायर सेकेंडरी पास करने के बाद इंजीनियरिंग की इंग्लिश में मोटी मोटी किताबें पढ़ना और समझना बढ़ा मुश्किल पड़ रहा था, लेकिन मेहनत का प्रतिफल ये था कि प्रथम वर्ष में 60 छात्रों में से 7 छात्र ही ऐसे थे जो सभी विषयों में पास हुए थे, जिनमें एक नाम मेरा भी था । किराए का कमरा बहुत अच्छा था, क्योंकि दूसरी मंजिल पर था और कमरे के बाहर खुली छत भी थी, मकान के पिछले हिस्से में बना था जिसमें पहुंचने के लिए पत्थर की  सीढ़ियाँ थीं, पूरा मकान ही पत्थर का बना था जो लगभग 50 साल पुराना बना होगा ।
माताजी ने आज हर छठ का व्रत किया था, ये व्रत बेटे के लिए माँ करती हैं । मेरे लिए तोरई की सब्जी और रोटी बनाईं थीं, स्टोव पर तवा रखकर गरम- गरम रोटियाँ बनाकर मुझे खिला रहीं थीं और मैं पास में बैठकर उनसे  कुछ बातें करते हुए  खाना खा रहा था । छत की तरफ खुलने वाले दरवाजे के पास खाना बनाने की जगह बना ली थी, जबकि सीढ़ियों से चढ़कर जिस दरवाजे से कमरे में पहुंचते थे उस तरफ दीवाल में बनी एक खुली अलमारी में मेरी किताबें और कुछ सामान रखा था, यहीं पास में एक छोटी टेबल और एक कुर्सी रखे थे जिस पर बैठकर मैं पढ़ता था । अलमारी के पास ही दीवाल पर एक हनुमान जी का कैलेंडर टंगा था, पढ़ते समय कैलेंडर पर नज़र जाती थी तो  पढ़ाई में सफलता की पूरी उम्मीद हो जाती थी ।
खाना खाकर में उठा और  अपनी किताबों की अलमारी के पास आया तो अचानक दीवाल हिलती हुई दिखी, माताजी की तरफ देखा, कुछ समझ पाता इससे पहले ही पूरा कमरा मेरी आँखों के सामने ही भरभराकर गिर गया और माताजी भी उसके मलबे में दब गईं । मैं जोर से चीखा लेकिन आवाज नहीं निकली । मैं जहाँ खड़ा था वो हिस्सा और एक दीवाल और सीढ़ियों और अलमारी से लगा हिस्सा नहीं गिरा था, मैंने हनुमानजी का कैलेंडर देखा, मन ही मन प्रार्थना की कि माताजी को बचा लो भगवान और सीढ़ियों से उतरकर मलबे के ढेर पर उस जगह जाकर माताजी को निकालने के लिए मलबा हटाने लगा, पानी बरस रहा था, मकान गिरने की आवाज से आसपास भीड़ लग गयी । लोग मुझे मलबे के ढेर पर देखकर मुझे हटने के लिए कह रहे थे, क्योंकि वो बची हुई दीवाल किसी भी क्षण गिर सकती थी, लेकिन मैं तो अपनी माँ को ढूंढ रहा था, मलबा हटाते=हटाते मुझे माँ का चेहरा दिख गया, मेरी जान में जान आयी, माँ ने मुझे देखा तो उन्हें भी तसल्ली हो गयी कि मैं दबा नहीं हूँ । अब मैं उनके ऊपर से मलबा हटा रहा था, लोग चिल्ला रहे थे, उन लोगों में मेरे उस खास दोस्त के चाचा और बड़े भाई भी थे, जो मुझे वहाँ से हटने के लिए कह रहे थे, सबको उस गिरती हुई दीवाल का डर था । मलबा हटाने पर भी माँ का आधा हिस्सा एक बड़े पत्थर छत की पटिया के नीचे दबा था, जिसे मैं नहीं हटा सकता था, मैंने दोस्त के चाचा और बड़े भाई को बोला कि माँ को निकाल लो, वो समझ गए, वो दोनों और तीन चार और लोग हिम्मत करके वहाँ आ गए और उस पत्थर को हटाया, मेरे दोस्त के बड़े भाई बिना देर किए माँ को हाथों में उठाकर मलबे के ढेर से नीचे उतर गए मैं भी उन लोगों के साथ नीचे उतर गया । हम लोग जैसे ही वहाँ से हटे वो दीवाल जो शायद इसी इंतजार में रुकी थी, भरभराकर गिर पड़ी । राम भक्त हनुमान से की गई प्रार्थना कभी खाली नहीं जाती ।
पूरी भीड़ माँ को बचाने के लिए हर जतन करने को साथ में दौड़ रही थी अस्पताल पहुंचने के लिए मुख्य मार्ग पर पहुंचकर कोई साधन जरूरी था, एक मिलिट्री का ट्रक जा रहा था, उसे भीड़ ने रोक कर सारी बात बताई तो ट्रक वालों ने माँ को  अस्पताल ले जाने की बात मान ली, ट्रक में पीछे ही माँ को लेकर जितने लोग  बैठ सके बैठ गए लेकिन परीक्षा अभी भी बहुत कठिन थी, ट्रक स्टार्ट नहीं हुआ, ट्रक ड्राइवर और मिलिट्री वाले परेशान हो गए, साथ में आये लोगों ने कहा कि हम धक्का लगा देते हैं, और भीड़ धक्का लगाकर ट्रक को अस्पताल तक ले आयी ।
कमलाराजा अस्पताल में बहुत जल्दी इलाज शुरू हुआ, चेहरे पर, हाथों में, पैरों में सभी जगह चोटें थीं, कुल 72 टांके लगे थे, शिवपुरी से बड़े भाई खबर मिलते ही आ गए । कुछ दिनों अस्पताल में रहने के बाद छुट्टी मिलने पर भाईसाहब माँ को शिवपुरी ले गए । मेरे दोस्त का पूरा परिवार मुझे अपना ही मानता था, दोस्त की माँ मेरा बहुत खयाल रखतीं थीं, कुछ दिनों तक उन्हीं के यहाँ रहा, मेरी किताबें, कपड़े, बर्तन कुछ भी नहीं बचा था । उस दिन मैं केवल पजामा और बनियान पहने रह गया था । पुराने मकान के पास से नाला निकला था जो लगातार बारिश होने से मकान की नींव को कमजोर करता रहता था, जिसके कारण मकान गिर गया था ।
माँ की धार्मिक आस्थाओं और भगवान पर भरोसे ने उन्हें इतने भयंकर हादसे में भी सुरक्षित रखा और भगवान की कृपा के साथ माँ के  सुरक्षा चक्र से मुझे तो खरोच भी नहीं आई थी ।
माँ पूर्ण स्वस्थ हो गईं लेकिन मुझे हॉस्टल में रहना पड़ा ।
मैं अपने इस सबसे खास दोस्त और इसके परिवार के साथ उन अंजान चेहरों को भी कभी भुला नहीं सकता जिन्होंने मेरी मदद की है ।
जा पर कृपा राम की होई ।
ता पर कृपा करें सब कोई ।

अवधेश सक्सेना- 25072020

बहाती मंद सी ख़ुश्बू पवन है । सुमेरु छंद

सुमेरु छंद
122 212, 221 22

बहाती मंद सी ख़ुश्बू पवन है ।

उठाती पीठ पे चींटी बजन है ।
बहाती मंद सी ख़ुश्बू पवन है ।

समा लेता नदी पूरी समंदर ।
नचे झूमे  करे मस्ती कलंदर ।

पिया की याद फिर मुझको सताती ।
बदन में आग फिर आकर लगाती ।

महीना आ गया सावन सुहाना ।
जवानी चाहती उस पर लुटाना ।

मिलन की आस में अँखिया खुलीं हैं ।
शयन सैया बिछी चादर धुलीं हैं ।

बसे जब से पिया परदेश जाकर ।
तसल्ली कर रही संदेश पाकर ।

टलेगा युद्व तो छुट्टी मिलेगी ।
चमन में फिर कली जूही खिलेगी ।

अचानक छिड़ गया जब युद्ध भारी ।
लड़े जमकर लगा जब शक्ति सारी ।

बचाई आन फिर अपने वतन की ।
गयी पर जान तब बाँके सजन की ।

तिरंगे में लिपट वो  लौट आए ।
मुझे सम्मान अब कितने दिलाए ।

तिरंगे से लिपट सोया करूंगी ।
उन्हीं की याद में खोया करुँगी ।

बड़ा होकर बने बेटा सिपाही ।
करे वो  शत्रु की भारी तबाही ।

यही सपना सदा देखा करुँगी ।
वतन को सौंप कर बेटा मरूँगी ।

अवधेश सक्सेना -16072020

सोमवार, 13 जुलाई 2020

प्रशस्ति पत्र 13 जुलाई 2020




कवि गोष्ठी 13 जुलाई 20

1 श्री किशोरी लाल जैन बादल
2 श्री गोकुल मंडलोई
3  श्रीमती पुष्पा शर्मा
4 श्री नाथू लाल मेघवाल
5 डॉ सुषमा जादौन
6 श्री हेमंत जोशी नादान
7 श्री धरम सिंह मालवीय 
8 इंजी. शंभु सिंह रघुवंशी अजेय
9 श्री सुशील कुमार यादव
10 श्रीमती ज्योत्स्ना रतूड़ी
11डॉ नमृता फुसकेले
12 श्री रतन सिंह सोलंकी
13 श्री अरुण कुमार दुबे
14 श्रीमती अनुरंजना सिंह
15 श्रीमती कीर्ति प्रदीप वर्मा 
16 डॉ.आदर्श पांडेय
17 डॉ. उषा कनक पाठक 
18 श्रीमती आरती अक्षय गोस्वामी

आप सभी का आभार
आप सभी की रचनाओं में से कई रचनाएँ निर्णायक को निर्णय लेते समय मुश्किल में डालेंगी कि ये भी बहुत अच्छी ये भी बहुत अच्छी ।
देखते हैं निर्णय किसके पक्ष में जाता है। शाम 8 बजे के उपरांत निर्णय पटल पर प्रस्तुत करेंगे ।
7 बजे धरम सिंह जी का एकल पाठ सुनेंगे ।
धन्यवाद, आभार ।

आरती गोस्वामी

"संवाद होना चाहिए"

हर समस्या का हल नहीं विवाद होना चाहिए ,
शांतिवार्ता आज़माकर अपवाद होना चाहिए ,
सुलझ जाए यदि समस्या सिर्फ वार्ता ही से ,
तब दोनों पक्षों में परस्पर संवाद होना चाहिए ।

भेद दें मस्तक अरि का यही गौरव हमारा है ,
धूल चटा दें शत्रु को यही इतिहास हमारा है ,
किन्तु युद्ध से पहले वार्ता निर्विवाद होना चाहिए ,
तब दोनों पक्षों में परस्पर संवाद होना चाहिए ।

हमने सदा से शांति मार्ग पर आगे बढ़ना चाहा है ,
हमने हर भेद मिटा कर सबको अपनाना चाहा है ,
अभिलाषा सिर्फ वतन सारा आबाद होना चाहिए ,
तब दोनों पक्षों में परस्पर संवाद होना चाहिए ।

शत्रु यदि नहीं संभले शांति अहिंसा की बातों से ,
फिर मौन तजो प्रतिउत्तर दो घातों का घातों से ,
तब गीता ज्ञान से स्वयं का संवाद होना चाहिए ,
और स्वयं की अंतरात्मा संग संवाद होना चाहिए ।
©®आरती अक्षय गोस्वामी
देवास मध्यप्रदेश
स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित

उषा कनक पाठक

   प्रतियोगिता हेतु 
शीर्षक -बरसात  (वर्षा -ऋतु )
    वर्षा सुन्दरि!जब आ जाती है 
    छन -छन पायल छनकाती है 
    ले स्वर्ण -कलश अमृत से पूरित 
     दोनों हाथों छलकाती है 
                 अपने  काले अलकों को वह
                  जब इधर-उधर फहराती है 
                  घन घहर -घहर करने लगता 
                   चपला चम -चम कर जाती है 
    सर -सर समीर तब आ करके 
    वर्षा जी को टहलाता है 
   उत्तर, पूर्व या पश्चिम, दक्षिण 
  किसी दिशा में ले जाता है 
                     जब अमृत रस नभ से गिरता 
                     तृषिता वसुधा होती मुदिता 
                     टिप -टिप - पड़ती नव बूंदों से 
                     सरिता का घट भर जाता है  
चातक ,पपिहा , दादुर, किसान 
होता प्रमुदित सागर महान 
पिहु -पिहु गायन के साथ सुनो 
नृत्य शिखि नित करता है 
स्वरचित व मौलिक 
डाॅ. उषा कनक पाठक 
मिर्जापुर उ.प्र. 

        

      
                 
                   
  

डॉ आदर्श पांडेय

ग़ज़ल


"रात ठंडी थी चाँद पूरा था
इश्क़ मेरा मगर अधूरा था
आंख लगने ही वाली थी मेरी
होने वाला भी अब सवेरा था
उस तरफ़ हम नही गए कबसे
जिस गली रोज़ होता फेरा था
तुमने पूरी ग़ज़ल सुनी होती
आखिरी शेर इसमे तेरा था
चैन से सोना काम उसका है
जागते रहना काम मेरा था
ऐसा अंदाज़ ये जुबाँ उसकी ?
ऐसा लहजा तो पहले मेरा था
अब जो ऐसा है पहले वैसा था
मैं जो दरिया हूँ पहले सहरा था
दिल मे कुछ दर्द अब भी ज़िंदा है
चोट ताज़ी है जख्म गहरा था
मीठी खुशबू बता रही है यहां
कोई आया था कोई ठहरा था
वो हमारा कभी भी था ही नही
मैं समझता था सिर्फ मेरा था"

डॉ आदर्श पाण्डेय
शाहजहाँपुर
उत्तर प्रदेश

कीर्ति प्रदीप वर्मा

उदास पार्क 

उदास पार्क
बड़बड़ा रहा था
अकेलेपन से कराह 
रहा था!!
धूल से सने झूले 
बेजान से पडे थे!
कल तक तो झूलने को
बच्चे कई लड़े थे। 
कोने में लगी कुर्सियां
मातम मना रही थीं, 
बुजुर्गों की टोलियां भी 
न जाने अब कहाँ थी? 
फव्वारे भी थे सूखे 
जो बच्चे हमसे रूठे। 
उदास तितलियाँ..
मूक है गिलहरी..
बजाती थी तालियाँ
नौनिहालों की टोली।
अंबियाँ लदी है टहनी
लगती हैं कितनी बोनी!
ये कैसी दूरियाँ है?
यह कैसा फासला था?
जब तोड़ते थे बच्चे 
उसमें ही तो मजा था।
आँखों में बस नमी थी 
बच्चों ही की कमी थी।
कोई पता बताओ 
कोई खोज के तो लाओ....….
               - कीर्ति प्रदीप वर्मा

अनुरंजना सिंह

🌷🌷भ्रूणहत्या🌷🌷
     "बेटी की इस समाज से गुहार"

मैं बेटी हूं मेरा क्या है दोष,
 मुझे कोख में मारा जाता है।
समाज कहे बेटी अभिशाप है,
क्यों मुझे नकारा जाता है।।
मुझको बोझ मान लिया,
मार डालने की ठान लिया,
मैं लक्ष्मी हूं, मैं दुर्गा हूं,
ये तुम्हें समझ न आता है।
मैं बेटी हूं मेरा क्या है दोष,
मुझे कोख में मारा जाता है।।
दादी ने जांच कराया है,
दादा ने मुझे मरवाया है,
दुनिया में अगर बेटी न रही,
तो बेटा कहां से आता है।
मैं बेटी हूं मेरा क्या है दोष,
मुझे कोख में मारा जाता है।।
पुत्र ही वंश बढायेगा,
बेटी पति घर जायेगी,
ये सोच तुम्हारी कब बदलेगी,
बेटी अनमोल खजाना है।
मैं बेटी हूं मेरा क्या है दोष,
मुझे कोख में मारा जाता है।।
गर बेटी दुनिया में रह न गई,
तो बहू कहां से लाओगे,
जब कोख में उसको मार दिया,
तो वंश कैसे बढाओगे।
बेटी से ही घर रोशन है,
क्यों कोई समझ न पाया है।
मैं बेटी हूं मेरा क्या है दोष,
मुझे कोख में मारा जाता है।।

        रचना
  अनुरंजना सिंह
 चित्रकूट, उत्तर प्रदेश।

अरुण कुमार दुबे

एक गीत 16,16 मात्रा भार

परिंदे की पुकार
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

जिन पर बने घरौदे थे वो ,पेड़  काटकर ले जाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर , मानव कैसे कहलाते हो।

जंगल वन उद्यान उजाड़े, क़ुदरत के सब तंत्र बिगाड़े।
वनचर विकल विकल है नभचर, सबके तंबू लगे उखाड़े।
बंजर करते जाते धरती, तनिक नहीं पर अकुलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर ,मानव कैसे कहलाते हो।

 लोहे गारे के है जंगल,  इनमें मंगल कैसे होगा।
वायु वर्षा और प्रकाश बिन, जीना  इक पल कैसे होगा।
यह विनाश का मूर्त रूप है, जो विकास तुम बतलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर, मानव कैसे कहलाते हो।

ईश्वर ने सब जीव बनाये, श्रेष्ठ मात्र कृति तुम कहलाये।
सबका हित सबका संरक्षण, तुम पर था कितना कर पाए।
क्या हमको संरक्षण दोगे, आपस में जब दहलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर, मानव कैसे कहलाते हो।

समय अभी है कुछ तो सोचो, सत्य भुला मत आँखें मींचो।
फिर जंगल वन हरे भरे हों ,प्रेम सुधा बरसा कर सींचो।
सबका जीवन बने निरापद, राह नहीं वो दिखलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर, मानव कैसे कहलाते हो।

रतन सिंह सोलंकी

एक गीत


फूट रहे शब्दों के अंकुर,
देखो मधुर जुवान से।
कविता के रोपे उग आए,
दिल के इस उद्यान से।


हर कोपल में भाव छिपे हैं,
कुछ खट्टे कुछ मीठे।
रोज छिड़कता इन पर यारों,
मैं अनुभव के छींटे।
आँख से झरते आँसू कभी,
दिल खिलते मुस्कान से।
कविता-----------/


तुलसी मीरा सूर कबीरा,
निश दिन गाऐ जाते।
इनके साहित्य को पढ़कर,
लोग धन्य हो जाते।
इनकी कलम से निकलाअक्षर,
मुझे लगे सोपान से।
कविता-----------//


हे अथाह सागर साहित्य का,
मोती तुम चुन लीजो।
हे ज्ञान की ये साधना,
साधक बन कर लीजो।
खूब सजाओ और संवारो,
शब्द ना हो बेजान से।
कविता-----------///


वर्तमान लिख जाओ ऐसा,
याद करे जिसको जन जन।
इतिहास की बनें धरोहर,
भविष्य का हो दर्पन।
जो भी पढ़े गुनगुनावे,
रतन बढ़े सम्मान से।
कविता-----------_////

रतनसिंह सोलंकी हरदा।

डॉ नमृता फुसकेले

छंद मुक्त कविता
 
             मृत्यु भोज

मृत्यु भोज है दर्द और ऑसूओं से भरा भोजन
बह रहे ऑसू किसी विधवा के 
बह रहे ऑसू अबोध बालक के
बह रहे ऑसू बेटे की मॉ के 
बह रहे ऑसू दुखी इंसानों के 
हर तरफ चीत्कार है
चँहुओर ऑसूओ की बारिश है
चीख ,दर्द और ऑसू है इस भोजन में
न करो भोजन दुखियों के घर
सान्तवना दो दुखियों को  
कौनसी रीति है मृत्यु भोज की 
मानव द्वारा बनाई गई कुरीति
करो कुरीति का जड़ से नाश
कहलायेगे हम इंसान 
इंसानियत नहीं है मृत्यु भोज 
कर्ज से दब जाते इंसान
जाने वाला चला गया
वह तो जीते जी मर गया
बन्द करो मृत्यु भोज को 
कलंक है इंसानियत के नाम का 

डॉ नमृता फुसकेले 
सागर (म प्र)

ज्योत्स्ना रतूड़ी

🙏नमन मंच 🙏
विधा-कविता मुक्तक
दिनाकं-13/07/2020
वार-सोमवार 
               🌹रखो रिश्तों को सम्भाल कर 🌹

 रिश्तो की डोर 
हो न कमजोर
 मुस्कान से अपनी
 कर दो सराबोर।

 रिश्ता हो दिल का 
 मीठा स्नेह का 
प्रगाढ़ हो रिश्ता 
खिले नूर चेहरे का

 व्यवहार से अपने 
सच हो जाए सपने 
छोड़ ना जाए कोई 
पहनो रिश्ते के गहने 

अगर कोई चुप हो जाए
 प्यार से  उसे   मनाएं
पहल  तुम कर  दो
 रिश्ता टूटने ना पाएं

अहम   ही     तोड़ता 
दिलों     का     रिश्ता
 गवाँ  दो   तुम मैं   पन 
संभालो प्यार का रिश्ता

 झुकना जो   पड़ जाए 
तो   झुक   भी   जाएं
सच्चा नहीं मिलता फिर
 पहले, प्यार को लौटाएं 

हो    रहे    रिश्ते   खत्म 
बचाने का  करो    जतन
 आदर नम्रता रखो  साथ 
खुशियां मिलेंगी फिर अनंत।

स्वरचित( मौलिक रचना )
ज्योत्सना रतूड़ी (ज्योति )
उत्तरकाशी (उत्तराखण्ड)

सुशील कुमार यादव

*गीतमाला छंद*


प्रेम है  जग  से  बड़ा  उत्तुंग  जानो, 
प्रेम ही  है  भक्ति वा  शक्ती सयानो। 
प्रेम  के  आगे  प्रभू  भी  हार  जाते, 
भक्त की आवाज पर वो दौड आतें। 

✍🏻 सुशील कुमार यादव 
       बाराबंकी उत्तर प्रदेश

शंभु सिंह रघुवंशी

नमन साथियों
13/7/2020/सोमवार
 #संस्कृति,संस्कार#
 काव्य‌ 

संस्कृति संस्कार भारतीयता
अब कहीँ विलुप्त हो रही है।
जैसे  वही पश्चिमी  संस्कृति ,
भारत में उन्मुक्त हो रही है।

भूले सब संस्कार हम अपने।
न भजन कीर्तन माला जपने।
नहीं करते भगवन का वंदन,
निजी सभ्यता हो गए सपने।

क्या खोया और क्या पाया है।
न गीत संस्कृति का गाया है।
सब नाते रिश्ते भूल गए हम ,
खान पान विदेशी भाया है।

नहीं चरण वंदना करते कोई।
न मेलमिलाप से रहते कोई।
अर्धनग्न सा हुआ  पहनावा,
न प्रेम प्यार ही रखते कोई।

स्वरचित ः
इंंजी. शंम्भूसिंह रघुवंशी अजेय
मगराना गुना म.प्र.
जयजय श्री राम राम जी

#संस्कृति, संस्कार, सभ्यता#काव्यः
13/7/2020/सोमवार

धरम सिंह

नमस्कार मित्रों एक गीत के माध्यम से पाकिस्तान को कवि की चेतावनी
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
एक हाथ मे गीता रख ली ,
दुजे हाथ कुरान,
बिगुल बजाकर रणचण्डी का ,
करते हम आभान
       तु बचना हमसे पाकिस्तान 2

सन 65 हो या 71 या हो करगिल का मैदान ,
एक भी वार चला न तेरा टूट गया अभिमान
एक बार क्या 4 बार हमने  घटा दिया तेरा मान
     तू बचना हमसे पाकिस्तान।।2

काश्मीर हैं भारत का और भारत की ए शान ,
इसको हाथ लगाओ गे तो ले लेंगे हम जान ,
जानो हमको जान से प्यारा हैं सारा हिन्दुस्तान।
तु बचना हमसे पाकिस्तान।।2
  
सत्य ,धर्म की राह पे चल 
और छोड़ दे उलटे काम,
जिहादी बारूदे बोना कर दे बन्द तमाम 
एक चिंगारी में हो जाएगा ,खुद तुही शमशान 
तु बचना रव से पाकिस्तान
।।2

कान खोल कर सुनलें ,धर्मा  का ऐलान 
तु बचना हमसे पाकिस्तान 
तु बचना हमसे पाकिस्तान 

 साहित्यकार 
धरम सिंह मालवीय

हेमंत जोशी नादान

"थोड़ी खट्टी थोड़ी मीठी है जिंदगी यारों..
देती हर रोज नया  गम है  जिंदगी यारों..
कोई कहने को तो कहता रहे यहां कुछ भी
ठोकरों बिन ना संभलती है जिंदगी यारों..!

   हेमंत जोशी 
     "नादान"
 भिंड मध्य प्रदेश

डॉ सुषमा जादौन

बँधी हुई आँखों पर पट्टी
अब तो साथी खोलो।
इसका,उसका मत बाँचो तुम,अपने मन की बोलो।
नहीं समय यह धृतराष्ट्र का, और न ही संजय का।
करना है उद्घोष स्वयं ही,
अपनी हार विजय का।
जीवन पथ की कर्म-तुला पर, आज स्वयं  को तोलो।बँधी हुई आँखों पर पट्टी,अब तो साथी खोलो।

सूर्य,चंद्र पर ग्रहण लगा है,
लौट आए हैं कंस,दुशासन।
तम की जय जयकार हो रही,मरा नहीं है अब भी रावण।स्वीकार नहीं बारूदी दहशत,मुँह तोप का खोलो।
बँधी हुई आँखों पर पट्टी अब तो साथी खोलो।
इसका उसका मत बाँचो तुम,अपने मन की बोलो।

एक वतन है,एक गगन है,
अपनी एक धरा है।
किसने  इनके संकल्पों में 
शक का ज़हर भरा है।
मन की उर्वर वसुंधरा पर,
बीज प्रेम के बोलो।
बँधी हुई आँखों पर पट्टी,अब तो साथी खोलो।

    डॉ.सुषमा जादौन,भोपाल।

नाथू लाल मेघवाल

मृत्यु भोज पर कुछ दोहे -समीक्षार्थ

1
मृत्यु भोज करना नहीं, कहे समय का ज्ञान। 
छोड इसे सब दीजिए, एक बुराई जान।
2
गिरवी रखे जमीन को, करे जो मृत्यु भोज। 
दबे कर्ज के बोझ से, मरता फिर हर रोज। 
3
खर्च मरे का व्यर्थ है, मृत्यु भोज हो बंद। 
फिर भी लोग न मानते,करते होकर अन्ध।
 4
मृत्यु भोज करना पड़े, देखा देखी आज। 
रोक लगी सरकार की,हम सबको हैं नाज। 
5
मृत्यु भोज को हम करें, सब प्रतीक के रूप। 
खर्च घटे सबका भला, बनकर रीत अनूप।
6
जो मरना था मर गया, खर्च बाद में व्यर्थ। 
जीवन भर होता रहे, उसके संग अनर्थ।
7
जिस घर में मातम रहे, उस घर लगता छोक। 
यह कुप्रथा बहुत बड़ी, लगे तुरत ही रोक।
8
मृत्यु भोज अब बंद हो, हो जागरूक लोग। 
जिस घर में कोई मरा, कैसे भाता भोग।
9
जब तक जीवित था मनुज, करे न सेवा खूब। 
किया मृत्यु पर भोज फिर, गये कर्ज में डूब। 
10
मृत्युभोज करना पड़े, परंपरा की आड़। 
दबता नीचे बोझ के, पड़ता टूट पहाड़।

रचना मौलिक और अप्रकाशित

नाथूलाल मेघवाल बारां राज.।

पुष्पा शर्मा

*कुंडलिया छंद* 
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जय जय माता पार्वती, 
                   जय जय भोलेनाथ।
आन विराजो ह्रदय में, 
               गणपति जी के साथ।।
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गणपति जी के साथ,
              भोग लडुवन के अर्पण।
धूप -दीप नैवेद्य सँग,
                प्रभू सर्वस्व  समर्पण।
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विपति विदारन हार,
                  महादेव की आरती।
करते सब मिल आज,
               जय हो माता पार्वती।।
〰️〰️〰️〰️〰️〰️
सोमवार का व्रत करें,
                   सावन में सब लोग।
शिवजी की पूजा करें,
                  कदली का दें भोग।।
कदली का दें भोग,
             मुदित मन आरति गावें। 
शंभु शंकर महादेव,
          गंग जल अति मन भावें।।
जय जय भोलेनाथ,
          जय जय जय श्री करतार।
मिलजुल पूजन करें,
               सावन मास सोमवार।।
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बड़ा सुहावन लागता,
                    सावन का ये मास।
बहिना राह निहारती,
                  बड़ी लगी है आस।। 
बड़ी लगी है आस,
            मिलन सखियों संग होवे। 
मन की गांठे खोल,
             बिनचिंता जीभर सोवे।। 
देती यही बताए,
             समय लगे पंख भागता।
हिय में आय हिलोर, 
               सावन प्यारा लागता।।
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दिनांक-13 जुलाई,2020  
पुष्पा शर्मा  
ग्वालियर,मध्य प्रदेश

गोकुल मंडलोई

"बौद्ध धम्म पर दोहे"
बौद्ध धरम को जानिऐ, कुछ दोहों के साथ।।
सबका मंगल होएगा, मंगलमय यह गाथ।।१।। 
हैं बुद्ध प्रणेता धम्म के, करुणा के हैं धाम।।
ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे, उनको करें प्रणाम।।२।।
"आर्य सत्य है चार" ही, "मार्ग अष्टांगिक" जान।।
"दस परिमिता" ध्यान रखो, यही धर्म का ज्ञान।।३।।
"दुःख" प्रथम आर्य सत्य है, दूसरा "दुख समुदय"।।
दुख को पहले समझ सको, कहां से हुआ उदय।।४।।
तीसरे आर्य सत्य को, "दुख निरोध" से जान।।
दुख का कारण ज्ञात हो, मिलकर करें निदान।।५।।
"दुख निरोध मार्ग" समझ, हो जा दुख से दूर।।
चौथा आर्य सत्य यही, सुख से है भरपूर।।६।।
"आर्य अष्टांगिक मार्ग" से, चलो धम्म की ओर।।
सम्यक बुद्धत्व को जान लो, मिले ज्ञान का ठौर।।७।।
कायिक, वाचिक, मानसिक, भले बुरे का ज्ञान।।
"सम्यक दृष्टि" प्रथम अंग है, करते बौद्ध बखान।।८।।
आसक्ति, विद्वेष, हिंसा का, कर मन से परित्याग।।
"सम्यक संकल्प" यह दूसरा, है अष्ट अंग का भाग।।९।।
झूठ, कपट, कटु बोलना, नहीं करो बकवास।।
तिसरा "सम्यक वाक" कहे, मन में ना हो त्रास।।१०।।
हिंसा, व्यभिचार छोड़िए, चोरी करना पाप।।
"सम्यक कर्मांत" ही कर्म है, चतुर्थ अष्टांग निष्पाप।।११।।
मांस, जहर, मद्य, जीव का, मत करिये व्यापार।।
"सम्यक आजीव" समझ लो, पांचवा अंग विचार।।१२।।
नित "सम्यक व्यायाम" करो, छटवां सम्बुद्ध समान।।
इंद्रिय वश में सदा रखो, सत्य विचार को जान।।१३।।
सुरता को चित में धरो, अधर्म कभी ना होय।।
"सम्यक स्मृति" अंग सातवां, चार भाग का होय।।१४।।
एकाग्रचित्त व प्रज्ञा मिले, "सम्यक समाधी" भाय।।
आर्य अष्टांगिक मार्ग का, यह अष्ट अंग कहलाय।।१५।।
"दस पारमिताएं" बुद्ध की, है जीवन का मूल।।
ध्यान सदा इनका रखो, नहीं करो कुछ भूल।।१६।।
"शील, दान और सत्य" का, सदैव करो व्यव्हार।।
"उपेक्षा, नैष्क्रम्य" कर्म का, करना है प्रतिकार।।१७।।
"वीर्य, अधिष्ठान" दृढ़ करो, बन जाओ बलवान।।
"करुणा, मैत्री, क्षांति" से, करते रहो कल्याण।।१८।।
सार तत्व यही धर्म का, बाइस प्रतिज्ञा जान।।
बुद्ध वाणी अनुसरण करों, और न दूजा ज्ञान।।१९।।
नित्य स्मरण करते रहो, गोकुल दोहे बीस।।
सबका मंगल होयेगा, बुद्ध की है आशीष।।२०।।
दोहावली---गोकुल १२/५/२०२०

किशोरीलाल जैन

किशोरी लाल जैन
बादल की कलम से मुक्तक 

जिन्हें ने पाला जी ने पोसा जिन्हें गोदी खिलाया है 
वही अब हो रहे जालिम जिन्हें चलना सिखाया है 
है यह रिश्ते खून के लेकिन नहीं लगते भरोसे के 
हंसाते ही रहे जिनको उन्ही सब ने रुलाया है

गुलामी का तजुर्बा तो हसीनों से मिलता है
बना कर देख लो जोरू मर्द पीछे  ही चलता है 
जो कहती है वही करता सभ्यता आज रोती है
 तभी तो गीत बादल का जमाने को अखरता है

Anuranjana Singh


Apurva shrivastava


शनिवार, 11 जुलाई 2020

प्रेतात्मा को रोना पड़ेगा भाग 2

प्रेतात्मा को रोना पड़ेगा
(कहानी भाग-2)
जमींदार ने थानेदार से विनम्र बनते हुए कुछ बात करने को कहा, थानेदार ने कहा कि बोलो क्या बात करना चाहते हो, उसने कहा कि थानेदार साहब आप तो हुकुम करो आपको क्या चाहिए, जो आप कहोगे आपकी सेवा में हाजिर कर देंगे । हम से मिलकर चलो मालामाल हो जाओगे, आपके इस दोस्त को भी मुँह मांगा इनाम मिल जाएगा । थानेदार ने जमींदार के गाल पर तमांचा जड़ दिया और बोला कि मैं बिकने वाला थानेदार नहीं हूँ, पत्रकार दोस्त जो अपनी डायरी में घटना का विवरण लिख रहा था, जमींदार से बोला कि तुम्हारा खेल खत्म हो गया जमींदार जी मेरे इस दोस्त की ईमानदारी को मैं बचपन से जानता हूँ, स्कूल की फुटबॉल टीम में सिलेक्शन के लिए जब खेल शिक्षक ने एक किलो घी मँगाया था तो इसने टीचर में ही चांटा मार दिया था । कल के अखबार में तुम्हारे इन काले कारनामों की खबर दुनिया पढ़ेगी । थानेदार ने जमींदार को उसके आदमियों के साथ ही लॉक अप में बंद कर दिया । थाने का हवलदार थानेदार के पास आकर बोला कि साहब ये जमींदार ज्यादा बोलता नहीं है, पर है बहुत खतरनाक, इसकी बात न मानने वाले थानेदार इस थाने में टिक नहीं पाते । इतने में फोन की घण्टी बजी, थानेदार ने फोन उठाया, उधर से आदेशात्मक स्वर में  आवाज आई, थानेदार ने जय हिंद बोलकर अभिवादन किया, फोन करने वाले ने बोला कि तुमने जिस जमींदार को पकड़ा है वो नेताजी का खास आदमी है, उस को तुरंत छोड़ दो नहीं तो हम सब मुश्किल में पड़ जाएंगे । थानेदार बोला लेकिन सर, सर उधर से आवाज आई कि मैं कुछ नहीं सुनूँगा जो कहा है वो करो और फोन कट गया । थानेदार को अपना अपमान लगा और तिलमिला उठा, गुस्से से भर गया और लॉक अप में पहुंचकर जमींदार और उसके आदमियों को लात घूंसों से मारते हुए अपना गुस्सा शांत किया । हवलदार को बुलाकर प्रकरण तैयार करने की कार्यवाही करने लगा । हवलदार ने फिर निवेदन की मुद्रा में समझाने की कोशिश की कि साहब मान जाओ, ठीक रहेगा । थानेदार ने हवलदार को डपट दिया कि मैं जो कह रहा हूँ करो ।
थोड़ी देर बाद फिर फोन आया, पूछा कि तुमने बात नहीं मानी, थानेदार बोला कि सर आप मुझे यहाँ से ट्रांसफर करा सकते हैं, लेकिन मैं जब तक यहाँ ड्यूटी पर हूँ, वही करूँगा जो कानूनी रूप से मुझे करना चाहिए । उधर से आवाज आई कि तो फिर तुम्हारी मर्जी, परिणाम भुगतने को तैयार रहो ।
कुछ ही देर बाद कुछ आदमी और एक औरत वहां आए और वो औरत  हवलदार से बोली कि थानेदार और इसके दोस्त ने रात में मेरे घर में जबरदस्ती घुसकर मेरे साथ बलात्कार किया है, मेरा पति जमींदार साहब के घर पर काम करता है और जब ये लौटा तो मैंने इसे सब बता दिया, थानेदार ने डरा दिया था कि किसी को बताया तो जेल में डाल दूँगा । उसका पति बोला कि जब मैंने जमींदार साहब को सब बताया और जमींदार साहब ने थानेदार से बात करनी चाही तो उन्हें पिस्तौल दिखाकर डरा दिया और लॉकअप में बंद कर दिया । हवलदार साहब तुम तो यहाँ सबको जानते हो, देवता जैसे गाँव के जमींदार साहब के साथ ये क्या कर रहा है, इस पापी की रिपोर्ट लिखो और इसे थाने से बाहर करो हम इसको सबक सिखाएंगे ।
कुछ लोग और इकट्ठे हो गए, पूरे गाँव में चर्चा होने लगी कि थानेदार और उसके पत्रकार दोस्त ने जमींदार के घर पर काम करने वाले आदमी की औरत को घर में अकेला पाकर बलात्कार कर दिया और जमींदार के आने पर उस पर भी झूठा केस लगा रहा है । देखते-देखते मशालें लिए हुए भीड़ थाने की तरफ बढ़ी चली आ रही थी, थानेदार ने फोन लगा कर जानकारी देने और सहायता की मांग करना चाही लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया । जमींदार का वो आदमी जिसकी पत्नी बलात्कार की घटना बता रही थी, थानेदार को पकड़ने थानेदार की तरफ बढ़ा तो थानेदार ने पिस्तौल निकालकर हवाई फायर किया, कुछ देर के लिए भीड़ तितर बितर हुई, लेकिन कुछ लोग बहुत गुस्से में थे जिनके हाथ में लाठी, फरसे और बंदूकें भी थीं । उन्होंने थानेदार की पिस्तौल छुड़ानी चाही तो थानेदार ने सामने से छुड़ाने वाले आदमी में गोली मार दी,तब तक कुछ लोगों ने पत्रकार को पकड़कर थाने के बाहर खींच लिया और लात घूंसों से मारने लगे, इधर गोली लगने पर वो आदमी छटपटाकर गिर पड़ा । इतने में एक आदमी ने थानेदार के सिर पर बंदूक की नली रख दी और पिस्तौल छुड़ा ली । पिस्तौल हाथ से छूटते ही कई लोगों ने मिलकर थानेदार को भी बाहर खींच कर लात घूंसों से मारना शुरू कर दिया, थाने के हवलदार और सिपाही एक तरफ खड़े-खड़े सब देख रहे थे, जमींदार के इशारे पर लॉकअप का ताला खोल दिया, जमींदार और उसके आदमी बाहर निकल आए । थानेदार और उसका दोस्त पत्रकार भीड़ से बुरी तरह पिट रहे थे । जमींदार ने दोनों को देखकर कुटिल मुस्कान बिखेरी, एक निगाह अपने लठैतों की तरफ डाली और इशारा समझते ही लठैतों ने दोनों के सिर पर लाठियां मार कर उनकी निर्मम हत्या कर दी । देश के कानून की रक्षा करते हुए एक ईमानदार और साहसी  थानेदार और निर्भीक कर्तव्यपरायण पत्रकार शहीद हो गए । जमींदार गाँव वालों से कह रहा था कि मैंने मना किया था शाम के बाद हवेली वाले रास्ते पर मत जाना, ये माने नहीं और उधर चले गए । प्रेतात्मा इनके अंदर घुस गई और इनसे पाप कराके इन्हें मार भी दिया ।

                                                   क्रमशः

उम्मीद रखो- व्यंग्य

एक आदमी अपने बेटे से कह रहा था, बेटे तुम्हारी नोकरी चली गयी तो क्या हुआ, फिर मिल जाएगी, डीजल,  पेट्रोल 60 से 80 हो गया कोई बात नहीं, विकास के लिए ये जरूरी भी तो है, तुम्हारे दादा जी को उपचार नहीं मिलने से दुनिया छोड़नी पड़ी तो क्या हुआ, उन्हें अब जीकर करना भी क्या था, तुम अपने दोस्त के किसान पिता की हालत की चिंता मत करो और ये मजदूरों, दुकानदारों की भी चिंता बेकार है, ये सब समय के साथ आते-जाते रहने वाली घटनाएं हैं ।
आस पास देखोगे तो ऐसे ही दुखी होते रहोगे, पीजिटिव रहो, मेरी तरह टी वी देखो, अखबार पढ़ो, ये देखो अखबार में सरकार की योजनाओं के वारे में इन विज्ञापनों में सरकार ने बताया है कि उसने जनता के लिए क्या क्या किया है । बिजली का बिल ज्यादा आता है तो बिजली की खपत कम कर लो, घर की पुताई एक साल बाद करा लेंगे, घी से चुपड़ी रोटी तो नुकसान भी करती है, बिना चुपड़ी रोटी खाने में कोई नुकसान नहीं है । फालतू की चिंता करना छोड़ो, हमारा देश कितना विकास कर रहा है, ये देखो, सरकार की नीतियों से आने वाले समय में हर देश वासी को बहुत लाभ होंगे । भरोसा रखो । आज का समाचार पड़ो हमारे देश के महान उद्योगपति मुकेश अम्बानी जी दुनिया के सबसे अमीर 10 लोगों की सूची में छठवें नम्बर पर आ गए हैं, बेटा इन्हीं की बजह से तो हम जैसे  करोड़ों देशवासी सस्ते मोबाइल डेटा का उपयोग कर रात दिन मोबाइल चलाते रहते हैं । इन्हीं की बदौलत देश में लाखों लोगों को काम मिल रहा है । उम्मीद रखो ये हमारे देश को  बहुत आगे लेकर जाएंगे ।
हमारे लिए आज का दिन गर्व करने का दिन है ।

कवि गोष्ठी 11 जुलाई 2020

आज की कवि गोष्ठी में रचना प्रस्तुत करने वाले सम्मानीय रचनाकार
1 श्री बसंत श्रीवास्तव
2श्री यतीश अकिंचन
3श्री कमल सक्सेना
4श्री आदित्य सिंह कश्यप कविराज
5 श्रीमती पुष्पा शर्मा
6 डॉ आदर्श पांडेय
7 श्री किशोरी लाल जैन बादल
8 श्रीमती पुष्पा मिश्रा आनंद
9 श्रीमती दीपांजलि दुबे
10 श्री विशाल चतुर्वेदी उमेश
11 श्री शिखर चंद्र जैन शिखर
12 श्री मनु बदायूँनी
13 श्रीमती ज्योत्स्ना रतूड़ी 

आप सभी का संस्थान की ओर से हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ ।
निर्णायक महोदय के निर्णय से आपको शाम 7 बजे के उपरांत अवगत कराएंगे और चयनित एक कवि और एक कवयित्री को आज के पसंदीदा कवि/ कवयित्री का सम्मान देते हुए प्रशस्ति पत्र प्रदान करेंगे ।
धन्यवाद ।🙏🙏

ज्योत्स्ना रतूड़ी ज्योति

🙏नमन मंच 🙏
 दिनांक- 11 /07/2020
वार-शनिवार 
                     "ओ बरसों काले बदरा"
ओ बरसों काले बदरा 
दिल मेरा जोर से धड़का
 याद पिया की आयी
खींच उन्हें मैं लायी।

झूम के नाचू आज पिया संग  
 बन के मतवारी लग जाऊं अंग 
नाचू बन मै आज मयूरी 
बावरी को अब ना करो तंग

उमड़ घुमड़ के बदरा बोले
संग संग मन मेरा भी डोले
नई नवेली अनुपम सी मैं 
 शरमाकर यूं नैना खोलें।                                                   कब से हुई पूरी मेरी चाह          
निकली फिर मुँह से मेरी आह  
आज हो गई मै तो तृप्त                
पिया भी बोले वाह भई वाह।

स्वरचित(मौलिक रचना) 
ज्योत्सना रतूड़ी (ज्योति )
 उत्तरकाशी (उत्तराखंड)

शिखर चन्द्र जैन

तुकान्त कविता शीर्षक आदमी।                     

अंदर का दर्द कोई , ना देख ले समझ ले।       
करता है ढोंग हरदम , हंसने का आदमी ।

आंसू नहीं हैं कोई  ,न सिसकियां सुनाएं ।
दिखता नहीं किसी को , रोता है आदमी ।

न है दिया न वाती ,पर लौ है टिमटिमाती ।
स्नेह तेल सूखा , बुझता है आदमी ।।

पराये  तो हैं पराये , अपनों के जख्म से ।
कब कब और कितनी बार, मरता है आदमी।

बन्दूक है न गोली , न तीर है न भाला । 
संघर्ष की लड़ाई , लड़ता है आदमी ।

भूला है आत्मा को , पाने को हर ऊंचाई ।
कैसा भी काम कोई ,करता है आदमी ।

सृष्टि की है ये रचना ,नर नारी अन्य प्राणी ।
सामाजिक बंधनों में ,  जकड़ा है आदमी ।

कितना भी कुछ भी कर ले , आखिर में देह ये तो ।
एक दिन जले चिता में ,कोई हो आदमी ।

रचनाकार
शिखर चंद जैन " शिखर " गंज बासौदा
 9425615029

मनु बदायुनी

दोस्तों एक ग़ज़ल आपके लिए 

वो मेरी नींद पर कब्ज़ा जमाकर बैठ जाती है 
तुम्हारी याद क्यों बिस्तर पे आकर बैठ जाती है 
 Vo meri nind pr kabza jmakr baith jati hai
Tumhari yaad kyun bistar pe aakar baith jati hai

मुझे जब लगने लगता है की मैं हूँ जीतने वाला 
नये मुहरे ये किस्मत फिर सजाकर बैठ जाती है 
Mujhe jb lagne lagta hai ki mai hun jeetane bala 
Naye muhre ye kismat fir sajakar baith jati hai 

सियासत झट पकड़ लेती है जुगुनू कैसे चमका था
जिधर सूरज हो वो चश्मा लगाकर बैठ जाती है 
Siyasat jht pakad leti hai jugnu kaise chamka tha 
Jidhar suraj Ho bo chashma lagakar baith jati hai

कहाँ का इश्क़ मेरा अब तो बस इतना सा  है किस्सा  
है उठती हूक दिल में कसमसाकर बैठ जाती है 
Kahan ka isq mera ab to bs itna sa hai kissa 
Hai uthati hook dil me kasmsakar baith jaati hai

शज़र तो कट गया लेकिन वो चिड़िया भूल ना पायी
वहीं पर वो किसी पत्थर पे जाकर बैठ जाती है
Shazar to kat gaya lekin vo chidiya bhool na payi
Vahin pr vo kisi pathar pe jakar baith jati hai

                 मनु बदायूँनी Manu Budayuni(copy right)

विशाल चतुर्वेदी उमेश

शीर्षक -सावन 
------------------

मौसम की अंगड़ाई ने , 
दिल को भाव विभोर किया । 
सावन की रिंमझिम बूँदों ने , 
अंग अंग झकझोर दिया ॥ 
चारु चन्द्र  की चंचल किरणें , 
मन में अलख जगाती हैं । 
सावन की पुरवाई भी , 
तन में अगन लगाती हैं ॥ 
विरह वेदना में विरहन को , 
दिखते हैं चहुँ ओर पिया । 
मौसम की अंगड़ाई ने , 
दिल को भाव विभोर किया । 
सावन की रिंमझिम बूँदों ने , 
अंग अंग झकझोर दिया ॥ 
तन मन बरसे , 
प्रीत रंग के । 
व्याकुल मन तरसे , 
पिया संग के ॥ 
मेघों की इस अंगड़ाई में , 
लगते है चितचोर पिया । 
मौसम की अंगड़ाई ने , 
दिल को भाव विभोर किया । 
सावन की रिंमझिम बूँदों ने , 
अंग अंग झकझोर दिया ॥ 


सर्वमौलिक अधिकार सुरक्षित 
विशाल चतुर्वेदी " उमेश "
जबलपुर मध्यप्रदेश

डॉ आदर्श पांडेय

अपनी अना को और वज़नदार कर दिया
दिल से तेरी यादों को तड़ीपार कर दिया
मक़तल में घुड़सवार बचा था मैं आख़िरी
फिर हौसला समेट के यलगार कर दिया
ख़रगोश बहुत तेज़ था इस बार रेस में
कछुए ने फिर भी उसको शर्मसार कर दिया
लहरों ने पहले किश्ती को सर पे उठाया फिर
इस पार कर दिया कभी उस पार कर दिया
कोई भी दौर हो यही जीने का है उसूल
इक़रार कर लिया कभी इनकार कर दिया
दिल मे तेरी यादों की घुटन थी उसे हमने
बाहर निकाला, कमरा हवादार कर दिया
यारों शिकस्तगी की मुसलसल बहार ने
बरबादियों का मुझको वफ़ादार कर दिया

डॉ आदर्श पाण्डेय
29 रोशनगंज
शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश

दीपांजलि दुबे

नमन भारतीय साहित्य सृजन  मंच🙏🙏
दिनांक :11/07/2020

हृदय 
के बन्धन  
नही बंधते 
उसूलों कायदों ,
धन वैभव की नुमाइश 
या आकर्षक महंगे उपहारों से ।

जीवन 
के इस कदम मे 
सुःख दुःख है इतने गहरे 
मानो हर क्षण हर पल आये 
खुशी बेशुमार और छाये बंदिसों 
के पहरे, रोशनी के लिए पस्त हुए हौसले ।

हैरान 
आँखे हरदम
कशमकश मे 
परेशान कदम ले जाते 
हैं खुदबखुद मनभावन राह 
पर जहाँ राह तके कोई मुद्दत से ।

स्वरचित मौलिक रचना 
रचनाकार दीपान्जली दुबे 
कानपुर नगर ।
उत्तर प्रदेश ।
🙏🙏

पुष्पा मिश्रा आनंद

कविता    बेटी
           *******

मैं डरी सी ,सहमी हूं।
न , मैंने कोई अपराध किया
ना किसी का दिल दुखाया
फिर भी मैं बाहर आने से
डरती हूं ।
क्योंकि मैं जिसकी कोख में हूं,
वह भी डरीसी है,
अकेले में प्यार भरी बातें करती,
खूब प्यार लुटाती,
लेकिन सब को देख कर,
सबकी बातें सुनकर, घबराती
कि अपने अंश को
धरती पर लाने के लिए,
किस, किससे लडूंगी।
रूढ़िवादी परिवार से,
सामाजिक परंपराओं से,
दूषित घूरती निगाहों से,
अपनों में ना मानवीयता है।
अविश्वास, कि भौतिकता की
चकाचौंध से।
इन्हीं बातों की सोच से,
धड़कते हृदय की गूंज से
मैं सहमी और डरीसी हूं।
अभी मेरा अस्तित्व ही नहीं है
जिसमें मेरा वजूद है।
उसको ही संबल,सहारा
अगर मिल जाए,
जिससे कि हमें भी इस 
दुनिया में आने का
अवसर मिल जाए।
मैं प्रार्थना रत, आने को अनवरत
सतत प्रयासरत
सपने सजाए मैं झुकी हूं।
मैं डरी सी सहमी सी हूं

       **********************

पुष्पा मिश्रा आनंद

किशोरीलाल जैन बादल

बादल की कलम से गजल 
ये शहर तेरा दिल को मेरे भा गया
 चलते चलते कहां से कहां आ गया 

जिंदगानी में फुर्सत नहीं काम से 
ये असर आपका मैं गजल गा गया 

मार्लों दौलत नहीं है किसी काम की 
एक बंजारा मुझको यह समझा गया 

आदमी आदमी से विमुख हो रहा 
वह जमाना गया और यह आ गया 

चांदनी रात का क्या भरोसा करें 
एक घटा आ गई और तँम छा गया 

खूब छाए हैं बादल बरसते भी है 
पेड़ पौधों को सूखा ये क्यों खा गया

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

पुष्पा शर्मा

हमारे विद्यालय शासकीय गोरखी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अर्थात अटल जी की पाठशाला के छात्र अजय शर्मा का मध्य प्रदेश की हाई स्कूल की प्रावीण्य सूची में स्थान हासिल कर गौरवान्वित करने पर बधाई स्वरूप  ये उद्गार कविता के रूप मे प्रकट हुए-
-
🌹🌹🌹🌹
*प्रेरणा -गीत*
💐💐💐💐
होनहार है छात्र हमारे,
करते नाम जहान में।
जगह सुनिश्चित करते अपनी,
मंडल के इम्तिहान में।।

1. मेहनत,लगन,मनोबल इनके,
सदा प्रबल ही रहते हैं।
समय बद्धता के महामंत्र संग,
आज्ञा पालन करते हैं।।
अनुशासनमय    अटल  इरादे,  
डिग ना सके तूफान में,
जगह सुनिश्चित..........

सादा जीवन,उच्च विचार,
मंत्र यही अपनाते हैं।
सबक सीखते हरेक विधा से,
जो गुरुजन इन्हें सिखाते हैं।।
कोशिश इनकी जारी रहती,
नित नूतन अनुसंधान में,
जगह सुनिश्चित..........

छात्रों !तुमको मिले सफलता,
सुरभि यश की फैलाना।
सबसे आगे रहना जग में,
उच्च शिखर पर बढ़ते जाना।।
चार चांद तुमको ही लगाना,
विद्यालय की शान में,
जगह सुनिश्चित..........
🌹🌹🌹🌹
दिनांक-11 जुलाई,2020
पुष्पा शर्मा
ग्वालियर,मध्य प्रदेश

आदित्य सिंह कश्यप कविराज

प्रीत की धार पर एक गीत लिखा,तो इस गीत को बोलो गा पाओगे
 प्रीत में यू जुदा रीत चलता तो है,तो इस 
रीत को क्या मिटा पाओगे
 मैं अकेला सही हलाहल पीता रहा ,क्या हलाहल को अमृत बना पाओगे 
प्रीत की धार पर एक गीत लिखा, तो इस गीत को बोलो गा पाओगे


जिनको चाहे थे हम खुद से अधिक
जिनको माने थे हम खुदा से अधिक 
दर्द देकर गए पर दुआ भी दिए
 क्या दुआ को दवा बना पाओगे
प्रीत की धार पर एक गीत लिखा,तो इस गीत को बोलो गा पाओगे


यू तुम्हारे सिवा इस दिल में भी ,
एक मूरत भी है जो कई जन्मों से मेरे साथ है 
दूर होकर भी हम दूर हो ना सके,
 हम दोनों के बीच वो अमर गांठ है
प्रीत की धार पर एक गीत लिखा,तो इस गीत को बोलो गा पाओगे


हम तो दुनिया से भी इनकारे हुए 
प्रेम के जंग में भी हां हारे हुए 
ये जो जीवन भी अब हारा जा चुका, इस जीवन को जीत सिखा पाओगे
 प्रीत की धार पर एक गीत लिखा, तो इस गीत को बोलो गा पाओगे 

कवि= आदित्य सिंह कश्यप "कविराज"
( सिवान, बिहार)

कमल सक्सेना

🌹🌹🌹🌹🌹 ग़ज़ल  🌹🌹🌹🌹🌹
अपना  ही  कोई   गैर  समझकर  चला  गया।
दिल  तोड़कर  मेरा  वो  सितमगर चला गया।
🌹🌹
मेरे   लबों   पे  अनबुझी  सी  प्यास  देखकर।
आकर    मेरे    करीब   समंदर   चला   गया।
🌹🌹
मैं  आशियाँ   था   टूटकर  ज़मीन  पर  गिरा।
लेकिन  वो  परिंदा  था वो उड़कर चला गया।
🌹🌹
अंजाम    सोचते    ही    रुह   कांपने   लगी।
जब  आईने  के  साथ  में  पत्थर  चला गया।
🌹🌹
करता रहा वो बात ए वफ़ा शाम तक कमल।
होने  लगी  जो  रात  तो  उठकर  चला गया।
🌹🌹
🌹ये ग़ज़ल मेरे प्रकाशित काव्य संग्रह,,,,,,,
कब तक मन का दर्द छुपाते,,,,से ली गई है🌹
🌎 यह ग़ज़ल मेरे प्रकाशित काव्य संग्रह,,,,,
कब तक मन का दर्द छुपाते ,,,,से ली गयी है🌎

यतीश अकिंचन

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=957194744733007&id=100013274701369
*मेरे_भारत!*
🚩🚩🚩🚩

मेरे भारत!मेरे भारत! मेरे भारत! मेरे भारत!
मेरे भारत! मेरे भारत! मेरे-मेरे मेरे-भारत!



मेरे भारत! सन्तानों ने तुझको कितना है दीन किया।
तेरे समान था कौन देश, तुझको कितना बलहीन किया।
यद्यपि तेरे कुछ चिह्न शेष हैं उठे हुए सबसे ऊपर।
अब भी लहराती है तेरी ध्रुव धर्म-ध्वजा सारी भू पर।



तेरे विकास का हुआ ह्रास, तेरा स्वर आज हुआ आरत।

मेरे भारत मेरे भारत मेरे-मेरे-----------!



लग रही आग नन्दन-वन में , सब खड़े-खड़े मुस्काते हैं।
कुछ धूम दिखाई देती है फिर फूँक-फूँक धधकाते हैं।
हो रहा वामपन्थी नर्तन खुलकर तेरी अँगनाई में।
विष घोल रहे हैं गुप्त-व्याल तेरी मञ्जुल-मधुमाई  में।



रोता है गेहूँ भाल पीट जलते जाते खलिहानों में।
चीखती कुदालों का स्वर सुनता कौन ढही चट्टानों में?
जो राष्ट्र-मान है गौरव है उसकी विक्षुब्ध कहानी है।
जी रही अभावों में कितनी यह जलती हुई जवानी है।



सज रहा पुनः मीना-बजार, पृथ्वी-दयिता लुट रही आज।
राणा-भामा हो गये मौन, सो रहा हाय मेरा समाज।
बढ़ रहे दस्यु सो रहा पुण्य मर रहे सिपाही बार-बार।
भारत-माता! तेरा आँचल हो रहा अहर्निश तार-तार।



माता के आँचल में पलते जयचन्दों को कर दो गारत ‌।
मेरे भारत मेरे भारत मेरे-मेरे ------------------!



अब कहाँ गये निज देश-धर्म पर हँस-हँसकर मरने वाले?
अब कहाँ गये ललकार देश में बार-बार भरने वाले?
अब कहाँ गये वह सन्त क्रान्ति का महारोर करने वाले?
अब कहाँ गये बलिदान-सिन्धु में बिना तरी तरने वाले?



अब कहाँ आन पर घास-मधुकरी खा सहास रहने वाले?
अब कहाँ गये निज वक्ष अड़ाकर तोपों से दहने वाले?
हिटलर ने जिसके साहस को पूजा युग-धर्मा कहाँ गया?
शेखर की वह पिस्तौल और गाँधी का चश्मा कहाँ गया?



बल गया हाय! वैभव अशेष, जल गया भारती का सुभाग।
बँट गया देश, कट गया देश, लुट गया देश, केसरी! जाग!
जागो हिमवान! हिन्द-सागर! जागो गङ्गे! तेरा समाज,
युग-युग का सिञ्चन हुआ व्यर्थ , मरुथल-अकाल पड़ गया आज।



वीरो! दो बहा शोण अपना, होने दो पुनः महाभारत।
मेरे भारत मेरे भारत मेरे-मेरे मेरे-भारत!
★★★★★

*यतीश अकिञ्चन*
(बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश)

बसंत श्रीवास्तव

जिंदगी की राह में ,हो रहा मगरूर कितना।
कुछ बरस की जिंदगानी,क्यों रहा तू भूल इतना।
 पर हितों के काम कर तू,, पुण्य! कुछ कर ले जरा क्यों पड़ा है झंझटो में ,कुछ अपना भी कर भला।
यह नहीं कहता मैं बंधु, कि मोह ,माया छोड़ दो। बंधनो से युक्त हैं हम, कर्तव्य से मुंह मोड़ लो।
 द्ववेश ,कपट ,छल,भावना से , दूर रहना है हमें।
 निज स्वार्थ से हो दुख किसी को,  बस कष्ट नहीं देना हमें।
 प्रभु की भक्ति सि खाती ,प्यार लो और प्यार दो। प्रेम से जीवन कटे और, कुछ जिंदगी का सार हो। सम्मान सबका कर सको तुम ,और मीठे बोल हो। हर जुबां पर नाम तेरा ,बस हीरा अनमोल हो। जिंदगी क्या चीज है, ना समझ पाए अभी
 श्मशान में सब बैठकर ,परिभाषा देते सभी 
  बसंत श्रीवास्तव शिवपुरी मध्य प्रदेश।

कवि सम्मेलन 8 जुलाई 2020







पसंदीदा रचनाकार





पसंदीदा रचनाकार



पसंदीदा रचनाकार

अभी तक के चयनित पसंदीदा रचनाकार 
5 जुलाई 20 श्री उदयराज सिंह एड.
6 जुलाई 20 पण्डित सुदामा शर्मा
7 जुलाई 20 विशाल चतुर्वेदी उमेश
8 जुलाई 20 कमलेश शर्मा कमल
9 जुलाई 20 श्रीमती कीर्ति प्रदीप वर्मा
10 जुलाई 20 श्रीमती केवरा यदु मीरा
                 श्री लक्ष्मी नारायण बुनकर
                 श्री विकास शुक्ल प्रचण्ड

कमल सक्सेना

🌹🌹🌹🌹🌹🌹 ग़ज़ल  🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🌹🌹
मिटेंगी   हस्तियाँ   तेरी  अमन    तब  याद  आयेगा।
मिलेंगी   ठोकरें  अपना   वतन  तब   याद  आयेगा।
🌹🌹
विदेशी   रंग  में   रंगकर   तेरी   बेटी   जवाँ   होगी।
तुझे इस  देश का चाल ओ चलन  तब याद आयेगा।
🌹🌹
मिलेंगे   फूल  कागज़   के  पराये  बाग  में  जाकर।
तुझे  इस  बाग  का   तन्हा सुमन तब याद आयेगा।
🌹🌹
बड़ा   होकर    तेरा   बेटा  कभी आँखें  दिखायेगा।
तुझे  मां  बाप  का कडुवा  कथन तब याद आयेगा।
🌹🌹
कभी जब पांव फिसलेंगे कमल इस संगमरमर पर।
तुझे  वो  गांव  का  कच्चा  सहन तब याद आयेगा।
🌹🌹

🌹यह ग़ज़ल मेरे प्रकशित काव्य संग्रह,,,,,, कब तक मन का दर्द छुपाते,,,,, से ली गयी है🌹
🌎कमल सक्सेना कवि गीतकार साहित्यकार बरेली🌎

गीता नायक

आदरणीय मंच
सादर नमन
🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏

मुक्तक 

122,,,,122,,,122,,,,,12


मुझे तुम मिल गए , जहा़ँ मिल गया।
ज़मीं मिल गई ,आसमा़ँ मिल गया।।
इससे*  ज्यादा * कुछ और चाहत नहीं ।
इश्क के सफ़र में मुकाँ मिल गया।।

गीता नायक'गीत'
बिलासपुर

धर्म सिंह

प्रकृति का अभिशाप हैं ये
लगता मनुज का पाप हैं ये
आज जगत में हो रहा जो
हमारे पूर्वजों का श्राप हैं ये

कोरोना बनकर जो जगत में छा रहा है
नयन खोलो की तुम्हारा पाप छा रहा हैं
हे मनुज अपने कर्मों को तुम याद कर लो
स्वार्थ के इस जगत  पर नाश छा रहा हैं


अदृश्य होकर नचाये कौन हमको
दिखता नही सताए कौन हमको
अरि खत्म कैसे होगा बताए कौन हमको
अदृश्य शत्रु से बचाये कौन हमको

कोरोना शत्रू बनकर जो आया
जगत में हां हा कार मचाया

शक्ति भारत की सकल जग जानता हैं
लोहा पश्चिम भी सारा हमारा मानता हैं

न बैठे हम कभी हार करके 
ठहर ते हम शत्रू को मार करके 
पुरुष परवल की अग्नि जब जब उठी हैं
शांत होती अरि का संघार करके 

शत्रू के पाँव जब भारत की तरफ बड़े है
वक्ष तान कर हमारे सैनिक खड़े हैं

वीर हमारे वीरता का सार देंगे
पुरुष परवल से ऐसा प्रहार देगे
व्याधि से जगत को तार देंगे
 कोरोना शत्रू को भी मार देंगे

सभी भारत का ही सार गाते हैं
भारत का स्वर्ण श्रगार गाते हैं
वो जो सकल जग को हराते हैं
यहाँ आकर सिकन्दर हार जाते है

 दिशा में घनघोर अंधेरा जो छा रहा हैं
कहदो उससे की नूतन  सबेरा आ रहा हैं 

फिर श्रगार के ही गीत गाएंगे हम
भेट करने तुमसे मीत आएंगे हम
प्यार के स्वप्न फिर से सजाएँगे हम
 कोरोना से धरम जीत जाएंगे हम

धरम सिंह

धर्म सिंह

-अर
रदीफ़ -हैं
2122 1212 22
   ग़ज़ल 
 *देखना मत* यहाँ जो *मंज़र* है
 *हाथ मे हर बशर के* खंजर है

फूल बनकर *महक रहा था जो* 
आज लगता मुझे वो *पत्थर* है

 *हाँ नदी* ही उफन *गयी होगी* 
हद नही *भूलता* समन्दर है

इस जहाँ में फ़क़ीर रहते  हैं
 *हर बशर* ही यहाँ कलन्दर है

प्यार करता जिसे *हूँ मैं यारों* 
यार मेरा वही सितमगर है

हाल  दिल का *तभी तो लिखता हूँ* 
दर्द दिल का धरम सुखनवर है

धरम सिंह

अरुण कुमार दुबे

एक ग़ज़ल।
रदीफ़ के साथ साथ
काफ़िया ई स्वर

ज़ख्म करता है अता चारागरी के साथ साथ
दुश्मनी भी निभ रही है दोस्ती के साथ साथ

क्या करूँ उसकी हिमायत क्या करूँ उसके ख़िलाफ़
रहज़नी भी कर रहा है रहबरी के साथ साथ

अब जमाने के रवैये में बहुत बदलाव है
पास रखना तू अना का,आज़ज़ी के साथ साथ

रहबरे मंज़िल तू अपने ज़हन में रखना ये बात
मौत चलती है हमेशा ज़िन्दगी के साथ साथ

एक दिन आएगा हम तुम हम ज़बाँ हो जायेगें
तुम भी हिंदी सीख लेना फ़ारसी के साथ साथ

तुम कदम अपने बढ़ाना होशयारी से बहुत
जब अँधेरे चल रहे हों रोशनी के साथ साथ

क्या अजब है वस्ल की तारीफ़ तुमको क्या बताऊँ
अश्क़ भर आते है आँखों में ख़ुशी के साथ साथ

मैं नहीं कहता न करना शायरी लेकिन अरुण
काम लाज़िम और भी है शायरी के साथ साथ

पास =भरम मान सम्मान
आज़ज़ी =अति विन्रमता, याचना
तारीफ़ परिचय पहचान

विकास शुक्ल प्रचण्ड

~~~ कुंडलियाँ~~~
🌿🌿🌿🌿🌿🌿
सावन मास सुहावना,
          हरियाली चहुँओर।
विपिन खिले सरिता बहें,
          है श्रावण चितचोर।।

है श्रावण चितचोर,
          घटाएं उमड़ रही हैं।
लिए पवन उनचास,
          दिशाएं बिगड़ रही हैं।।

कोयल गाती राग,
          हुआ मन अतुलित पावन।
नभचर करें बिहार,
          विमोहित करता सावन।।
~~~~~~~~~~~~~~~~~
मृगमद सुरभि सुगंध प्रिय,
            करती मन आधीन।
आल्हादित पर्यावरण,
            किसलय हुए नवीन।।

किसलय हुए नवीन,
            बिरह वर्षा का टूटा।
घन घन बरसे मेघ,
            ताप गरमी का छूटा।।

कंचन सा परिवेश,
            देखकर जनमन गदगद!
धुलती नही सुगंध,
            मिला है ऐसा मृगमद।।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿
★ विकास शुक्ल प्रचण्ड★
     🙏🏻🙏🏻💥🙏🏻🙏🏻

पण्डित सुदामा शर्मा

काव्य श्रृंखला तस्वीर
के कुछ अंश...... ‌

हर सुबह बिल्कुल नई
मगर क्रम वही पुराना
वही सुनना वही सुनना
वही रोना वही गाना
वही तृष्णा वही लालच
वही ठगना और ठगाना
वही मन के विकारों का
छुपना और छुपाना
संतोष की समाधि
निद्रा ज्ञान की....
यूं चल रही है क्यों
लड़ाई आत्म सम्मान की
सत्यता की बातें प्रबल
प्रबल ईश का शोध
मगर मिट न पाया अभी तक
कर्तापन का बोध...
वही पुराने रास्ते और
वही जीर्ण अवरोध
चल रहा क्यों आजतक
मानसिक प्रतिशोध...
ज्ञान का सागर हृदय में
मगर त्रषित हैं
मिटायें वेदना कैसे किसी की
जब खुद व्यथित हैं...
प्रत्येक चर्चा में अपनी
महानता का प्रर्दशन
अनुराग में डूबकर
वैराग्य का दर्शन....
कथनी और करनी में
अद्भुत विरोधाभास
निराधार तथ्यों पर
ईश्वर की प्राप्ती का प्रयास
प्रेम की परिभाषा का
स्वतंत्र निरुपण
व्याख्या पराये दोषों की
करते साहित्य भूषण
विद्वानों की श्रेणी में
अत्यंत उच्च पद
एक हाथ में लोभ
एक हाथ में मद ....
नेत्रों में झलकती ज्योति
क्रोध और काम की
दुनियां में किसको 
जरूरत है ज्ञान की...
कल्पना नहीं यह तस्वीर है
आज के इंसान की
हकीकत है इंसान के
मानसिक उत्थान की... शेष..
पंडित सुदामा शर्मा गुना मध्य प्रदेश ९९९३०८९८२०

नेहा सक्सेना

*हर शक्स परेशान क्यूं है*

आंखों में आसूं, फिर भी होटों पर मुस्कान क्यूं है,
क्यूं दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं हम, आखिर हर शख़्स परेशान क्यूं है

गुलशन है सफर ज़िन्दगी का अगर,
तो फिर इसकी मंज़िल शमशान क्यूं है
आखिर हर शख़्स परेशान क्यूं है

जब जुदाई है प्यार का मतलब,
तो फिर प्यार करने वाला इतना हैरान क्यूं है
आखिर हर शख़्स परेशान क्यूं है

अच्छा कर्म करना है ज़िन्दगी है अगर,
तो फिर बुराई का रास्ता इतना आसान क्यूं है,
आखिर हर शख़्स परेशान क्यूं है

अगर जीना ही है मरने के लिए,
तो फिर ज़िन्दगी एक वरदान क्यूं है,
आखिर हर शख़्स परेशान क्यूं है

कभी ना मिलेगा जो, उससे ही लग जाता है दिल,
कमबख्त ये दिल इतना नादान क्यूं है,
आखिर हर शख़्स परेशान क्यूं है

नेहा सक्सेना
शिवपुरी म. प्र.

डॉ लक्ष्मी नारायण बुनकर

गीत  नदिया बीच नाव नही ठहरे,सागर चले हिलोर है।माझी कैसे पार उतारे तूफानों का जोर है।। खड़ा हिमालय देख रहा है,विगलित अपनी चोटियां।जहाँ- तहाँ सब सेंक रहे हैं,अपनी अपनी रोटियां।दुश्मन जाल लिए फिरते हैं,जिसकी लंबी डोर है।माझी कैसे पार उतारे तूफानों का जोर है।।  आजादी के नारों में खो गई हमारी आजादी।आबादी आबादों की है,बाकी तो है बर्बादी।देशवासियों सुनो देश का रुख जाने किस ओर है।माझी कैसे पार उतारे ,तूफानों का जोर है।।   मानव आज बढ़ा है आगे मानवता को छोड़कर ।फूलों की आशा करता है,कच्ची कलियाँ तोड़ कर।चमन की रक्षा कौंन करेगा,खुद ही अपना चोर है।माझी कैसे पार उतारे तूफानों का जोर है।।   सारे कंकड़ पत्थर कांटे ,साफ हमें ही करना है।रहना है समता से सबको नहीं किसी से डरना है।सघन तिमिर को दूर हटाकर लानी हमको भोर है।माझी कैसे पार उतारे तूफानों का जोर है।।   डॉ लक्ष्मी नारायण बुनकर विभागाध्यक्ष,हिंदी शासकीय स्नातकोत्तर महा विद्यालय गुना मध्य प्रदेश

केवरा यदु मीरा

जूही चम्पा चमेली होती है बेटियाँ 
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

गंगा की निर्मल नीर सी होती है बेटियाँ।
हम सबकी तकदीर सी होती है बेटियाँ ।

मंदिर की घंटियां है कुरान है कुरान है मस्जिद की।
गुरुद्वारे की गुरूवाणी होती है बेटियाँ ।।

गीता के श्लोक रामायण की चौपाइयाँ।
कबीर की दोहे सी होती बेटियाँ ।।

बेटियाँ नहीं तो सूना    सारा जहाँ 
माँ बहन राखियाँ  सी होती है बेटियाँ ।।

राम कृष्ण गौतम बेटियों की देन है 
सृजन की देवी नारी होती है बेटियाँ ।।
हम सबकी--

बेटी तुलसी की बिरवा फूलों की महक है।
जूही चम्पा चमेली होती है बेटियाँ।
हम सबकी----

सीता सावित्री से समझो न इसे कम।
दोंनो कुल की तारणी होती है बेटियाँ ।।
हम सबकी---

राखी तीज करवा चौथ रस्म बेंटियों से है।
माथे की चंदन अबीर सी होती है बेटियाँ ।।
हम सबकी---

रौशन करेगा बेटा बस एक ही कुल को।
दोनों कुलों के दर्द को सहती है बेटियाँ ।।
हम सबकी--

सानिया किरण वेदी चाहे कल्पना कहो।
आसमां को छू रही आजकल की बेटियाँ ।।
हम सबकी,---

आँगन में कन्यादान होता है जिस घड़ी।
माँ बाबुल की आँख भिगोती है बेटियाँ ।।

पायल की रूनझुन से गूँजे देखो अँगना।
आँगन की लक्ष्मी सरस्वती होती है बेटियाँ ।।
हम सबकी तकदीर सी होती है बेटियाँ।

गंगा की निर्मल नीर सी होती है बेटियाँ ।
हम सबकी तकदीर सी होती है बेटियाँ।।

केवरा यदु "मीरा "
राजिम

ज्योत्स्ना रतूड़ी ज्योति

🙏नमन मंच🙏
विधा-गीत 
दिनांक-10/07/2020
वार-शुक्रवार 
                     😃😀जिन्दगी🙄😬
 हर घड़ी ये जिंदगी बदल रही है रूप 
कभी लगती है छांव सी तो कभी है धूप

 चलती है जिंदगी जब हिसाब से हमारे
 तो दिखते हैं हर तरफ खूबसूरत नजारे

 होती ना कभी जो  मन  की  मुराद  पूरी 
 उस पल होता  एहसास जिंदगी है अधूरी

 बजते हैं दिल में कभी जो प्रेम के गीत
 कानों में बस उठते हैं फिर से कई संगीत 

प्रेम से बढ़कर नहीं  है  जिंदगी  ए   मीत
 बदलेंगे हम मिलकर फिर जमाने की रीत  

 बस बदल रही है यहां  जिंदगी हर  पल
 देती कभी सौगात तो कभी देती है छल।

स्वरचित (मौलिक रचना )
ज्योत्सना रतूड़ी (ज्योति )
उत्तरकाशी (उत्तराखंड)

गोकुल मंडलोई

*इतनी नफ़रत क्यों*
जो नफरत तेरे मस्तिष्क में है,
दिल से भी पूछ ले क्या यह सही है।।१।।
ना तुने देखा मुझे ,
न मैंने तेरा कुछ छीना है।
फिर किस गफलत में, 
दुश्मनी रख ली सोच तू वही है।।२।।
विचार मेरे तेरे मकसद के हो न हो,
किसी को कुछ नसीहत तो देते होंगे।
क्यों उलझन में है ऐ अजनबी राही,
जरूरी तो नहीं कि तू इसे ले के चल।।३।।
करना है गर मुझसे दोस्ती कर
फिर देख मेरे अल्फ़ाज़ कैसे लगते हैं।
वहम से बाहर एक बार निकल
मैं अपनी जगह, तू अपनी जगह सही है।।४।।---गोकुल
गोकुल दास मंडलोई
भोपाल 9826346313

कृष्ण मुरारी लाल मानव

भारतीय साहित्य सृजन मंच की प्रतिष्ठा में। 

नफरतों की आग में चहुँ ओर शरहद जल रही है। 
मन ब्यथित है नेह के नगमे भला कैसे सुनाऊँ।। 

भारती के भाल को कोई सिर फिरा मांगता है। 
अब तो वो इंसानियत की सारी सीमा लांघता है। 
खून का प्यासा बना सीमा पे द्वंद्व मचा रहाहै। 
नफरतों का जहर फैलाकर के देश जला रहा है। 
ईर्ष्या के ताप से झुलसी कली कैसे खिलाऊं।
मन ब्यथित,,,,,,, 
कोई भाषा वर्ण वर्ग नित्य जता रहा है। 
मधुरिमा संस्कृत सुता हिन्दी में द्वेष बता रहाहै। 
जिसने देश की सभ्यता संस्कृति को दूषित कर दिया है। 
तज दिये संस्कार अपने बिष दिलों में भर दिया है। 
हिन्दी के मांथे  की बिंदी कृष्ण कैसे फिर सजाऊँ। 
मन ब्यथित,,,,,,,,,
अब यहाँ पर भ्रष्टता जन जन को पीड़ित कर रही है। 
खादी टाई साथ जब फिर वो भला क्यों डर रही है। 
दीन हीन किसान के फांसी गले की बन रहीहै। 
साथ खाकी का मिला होकर निडर वो तन रहीहै। 
कृष्ण है अंधेर नगरी पीड़ा किसको मैं बताऊँ। 
मन ब्यथित है नेह के नगमे भला कैसे सुनाऊँ।। 

कृष्ण मुरारी लाल मानव रामनगर एटा

रुचिका सक्सेना

सुनो....💕
कविता क्या है 💞
कविता हृदय की अभिव्यंजना है,
अंतर्मन का उद्गार है
कभी कल्पना है,
कभी वास्तविकता है,
जीवन का स्वरूप है,
मन की खूबसूरती है,
सुर है, संगीत है
शब्दों की लड़ी है
अठखेलियाँ हैं,
चाहत है
कविता तुम हो
मैं हूँ, प्रकृति है,
महकती, खिलखिलाती 
धूप है, चाँदनी है
खूबसूरत वादी है
लहराते वृक्ष हैं,
प्रेम है, स्नेह है
आत्मीयता है,
अपनत्व है।
क्या कभी...
तुमसे
कविता ने बात की है....
कहा है मुझे पढ़ो...
मेरे अनछुए, अनलिखे पहलुओं पर गुनगुनाओ....
कहा है मुझे लिखो....
क्या कभी पलकों के दरवाजे पर 
दस्तक दी है...
कहा है कि मुझे ओढ़ो
मुझे अपनी बोली में सुनाओ....
मुझमें सिमट जाओ, मुझमें समाओ,
क्या कभी हुआ है
कि कमरे के भीतर आने पर 
भी रह गया है धूप का
एक टुकड़ा चेहरे पर....
सड़क पर चलते - चलते
एहसास सी ,फूलों की खूशबू लिए
छू गयी है ओस की एक बूँद.....
और एक याद को
कभी याद किया है आपने
दिल में बसे चेहरे की तरह
वो चेहरा , जो सबसे प्यारा है
दिल के करीब, मन में बसा
कितनी बार बादलों में
एक पहचाना सा
चेहरा नज़र आया है....
कितनी बार अकेले छत पर 
लेटे चाँद मुस्कुराया है....
सोचिये , कहिए
आपसे कभी
कविता ने बात की है?
मुझसे तो की है..
हाँ! हाँ!
मुझसे तो की है...
मैं तुम्हें सोचती हूँ हरपल
और अब तुम मुझे सोचो...
और मैं लिखूँ कविता
तुम लिखो....
और मैं जियूँ कविता
तुम जियो....
और मैं बनूँ कविता
इस तरह
एक दूसरे के🌹
होने की वजह हो जाएँ।

रुचिका सक्सेना✏️🤗

वासुदेव अग्रवाल नमन जी द्वारा सवैया विधान

 वासुदेव अग्रवाल नमन तिनसुकिया ने सवैया छंद का विधान बहुत ही सरल तरीके से समझाया है । सवैया छंद विधान सवैया चार चरणों का वार्णिक छंद है जिसक...