एक ग़ज़ल।
रदीफ़ के साथ साथ
काफ़िया ई स्वर
ज़ख्म करता है अता चारागरी के साथ साथ
दुश्मनी भी निभ रही है दोस्ती के साथ साथ
क्या करूँ उसकी हिमायत क्या करूँ उसके ख़िलाफ़
रहज़नी भी कर रहा है रहबरी के साथ साथ
अब जमाने के रवैये में बहुत बदलाव है
पास रखना तू अना का,आज़ज़ी के साथ साथ
रहबरे मंज़िल तू अपने ज़हन में रखना ये बात
मौत चलती है हमेशा ज़िन्दगी के साथ साथ
एक दिन आएगा हम तुम हम ज़बाँ हो जायेगें
तुम भी हिंदी सीख लेना फ़ारसी के साथ साथ
तुम कदम अपने बढ़ाना होशयारी से बहुत
जब अँधेरे चल रहे हों रोशनी के साथ साथ
क्या अजब है वस्ल की तारीफ़ तुमको क्या बताऊँ
अश्क़ भर आते है आँखों में ख़ुशी के साथ साथ
मैं नहीं कहता न करना शायरी लेकिन अरुण
काम लाज़िम और भी है शायरी के साथ साथ
पास =भरम मान सम्मान
आज़ज़ी =अति विन्रमता, याचना
तारीफ़ परिचय पहचान
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें