बादल की कलम से गजल
ये शहर तेरा दिल को मेरे भा गया
चलते चलते कहां से कहां आ गया
जिंदगानी में फुर्सत नहीं काम से
ये असर आपका मैं गजल गा गया
मार्लों दौलत नहीं है किसी काम की
एक बंजारा मुझको यह समझा गया
आदमी आदमी से विमुख हो रहा
वह जमाना गया और यह आ गया
चांदनी रात का क्या भरोसा करें
एक घटा आ गई और तँम छा गया
खूब छाए हैं बादल बरसते भी है
पेड़ पौधों को सूखा ये क्यों खा गया
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