ग़ज़ल
"रात ठंडी थी चाँद पूरा था
इश्क़ मेरा मगर अधूरा था
आंख लगने ही वाली थी मेरी
होने वाला भी अब सवेरा था
उस तरफ़ हम नही गए कबसे
जिस गली रोज़ होता फेरा था
तुमने पूरी ग़ज़ल सुनी होती
आखिरी शेर इसमे तेरा था
चैन से सोना काम उसका है
जागते रहना काम मेरा था
ऐसा अंदाज़ ये जुबाँ उसकी ?
ऐसा लहजा तो पहले मेरा था
अब जो ऐसा है पहले वैसा था
मैं जो दरिया हूँ पहले सहरा था
दिल मे कुछ दर्द अब भी ज़िंदा है
चोट ताज़ी है जख्म गहरा था
मीठी खुशबू बता रही है यहां
कोई आया था कोई ठहरा था
वो हमारा कभी भी था ही नही
मैं समझता था सिर्फ मेरा था"
डॉ आदर्श पाण्डेय
शाहजहाँपुर
उत्तर प्रदेश
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