सोमवार, 13 जुलाई 2020

अरुण कुमार दुबे

एक गीत 16,16 मात्रा भार

परिंदे की पुकार
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

जिन पर बने घरौदे थे वो ,पेड़  काटकर ले जाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर , मानव कैसे कहलाते हो।

जंगल वन उद्यान उजाड़े, क़ुदरत के सब तंत्र बिगाड़े।
वनचर विकल विकल है नभचर, सबके तंबू लगे उखाड़े।
बंजर करते जाते धरती, तनिक नहीं पर अकुलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर ,मानव कैसे कहलाते हो।

 लोहे गारे के है जंगल,  इनमें मंगल कैसे होगा।
वायु वर्षा और प्रकाश बिन, जीना  इक पल कैसे होगा।
यह विनाश का मूर्त रूप है, जो विकास तुम बतलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर, मानव कैसे कहलाते हो।

ईश्वर ने सब जीव बनाये, श्रेष्ठ मात्र कृति तुम कहलाये।
सबका हित सबका संरक्षण, तुम पर था कितना कर पाए।
क्या हमको संरक्षण दोगे, आपस में जब दहलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर, मानव कैसे कहलाते हो।

समय अभी है कुछ तो सोचो, सत्य भुला मत आँखें मींचो।
फिर जंगल वन हरे भरे हों ,प्रेम सुधा बरसा कर सींचो।
सबका जीवन बने निरापद, राह नहीं वो दिखलाते हो।
इतने निर्मम निर्दय होकर, मानव कैसे कहलाते हो।

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