गुरुवार, 16 जुलाई 2020

संस्मरण जा पर कृपा राम की ।

संस्मरण
जा पर कृपा की राम की
बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, सात दिन हो गए थे ।
आधा अगस्त निकल चुका था, कॉलेज में क्लास नहीं लग रहीं थीं, मेरी क्लास का अच्छा दोस्त अभी कुछ देर पहले ही मेरे पास बैठकर कुछ पढ़ाई की कुछ राजनीति की बातें करके गया था, कॉलेज में दूसरा साल था और इसी दोस्त ने ग्वालियर में अपने घर के पास मुझे एक मकान में कमरा किराये से दिलाया था, माँ को साथ में रखना था इसलिए हॉस्टल में न रहकर किराए के मकान में रहना जरूरी था । माँ खाना बना देती थीं और मैं अपनी पढ़ाई करता रहता था । सरकारी स्कूल से  हिंदी मीडियम में हायर सेकेंडरी पास करने के बाद इंजीनियरिंग की इंग्लिश में मोटी मोटी किताबें पढ़ना और समझना बढ़ा मुश्किल पड़ रहा था, लेकिन मेहनत का प्रतिफल ये था कि प्रथम वर्ष में 60 छात्रों में से 7 छात्र ही ऐसे थे जो सभी विषयों में पास हुए थे, जिनमें एक नाम मेरा भी था । किराए का कमरा बहुत अच्छा था, क्योंकि दूसरी मंजिल पर था और कमरे के बाहर खुली छत भी थी, मकान के पिछले हिस्से में बना था जिसमें पहुंचने के लिए पत्थर की  सीढ़ियाँ थीं, पूरा मकान ही पत्थर का बना था जो लगभग 50 साल पुराना बना होगा ।
माताजी ने आज हर छठ का व्रत किया था, ये व्रत बेटे के लिए माँ करती हैं । मेरे लिए तोरई की सब्जी और रोटी बनाईं थीं, स्टोव पर तवा रखकर गरम- गरम रोटियाँ बनाकर मुझे खिला रहीं थीं और मैं पास में बैठकर उनसे  कुछ बातें करते हुए  खाना खा रहा था । छत की तरफ खुलने वाले दरवाजे के पास खाना बनाने की जगह बना ली थी, जबकि सीढ़ियों से चढ़कर जिस दरवाजे से कमरे में पहुंचते थे उस तरफ दीवाल में बनी एक खुली अलमारी में मेरी किताबें और कुछ सामान रखा था, यहीं पास में एक छोटी टेबल और एक कुर्सी रखे थे जिस पर बैठकर मैं पढ़ता था । अलमारी के पास ही दीवाल पर एक हनुमान जी का कैलेंडर टंगा था, पढ़ते समय कैलेंडर पर नज़र जाती थी तो  पढ़ाई में सफलता की पूरी उम्मीद हो जाती थी ।
खाना खाकर में उठा और  अपनी किताबों की अलमारी के पास आया तो अचानक दीवाल हिलती हुई दिखी, माताजी की तरफ देखा, कुछ समझ पाता इससे पहले ही पूरा कमरा मेरी आँखों के सामने ही भरभराकर गिर गया और माताजी भी उसके मलबे में दब गईं । मैं जोर से चीखा लेकिन आवाज नहीं निकली । मैं जहाँ खड़ा था वो हिस्सा और एक दीवाल और सीढ़ियों और अलमारी से लगा हिस्सा नहीं गिरा था, मैंने हनुमानजी का कैलेंडर देखा, मन ही मन प्रार्थना की कि माताजी को बचा लो भगवान और सीढ़ियों से उतरकर मलबे के ढेर पर उस जगह जाकर माताजी को निकालने के लिए मलबा हटाने लगा, पानी बरस रहा था, मकान गिरने की आवाज से आसपास भीड़ लग गयी । लोग मुझे मलबे के ढेर पर देखकर मुझे हटने के लिए कह रहे थे, क्योंकि वो बची हुई दीवाल किसी भी क्षण गिर सकती थी, लेकिन मैं तो अपनी माँ को ढूंढ रहा था, मलबा हटाते=हटाते मुझे माँ का चेहरा दिख गया, मेरी जान में जान आयी, माँ ने मुझे देखा तो उन्हें भी तसल्ली हो गयी कि मैं दबा नहीं हूँ । अब मैं उनके ऊपर से मलबा हटा रहा था, लोग चिल्ला रहे थे, उन लोगों में मेरे उस खास दोस्त के चाचा और बड़े भाई भी थे, जो मुझे वहाँ से हटने के लिए कह रहे थे, सबको उस गिरती हुई दीवाल का डर था । मलबा हटाने पर भी माँ का आधा हिस्सा एक बड़े पत्थर छत की पटिया के नीचे दबा था, जिसे मैं नहीं हटा सकता था, मैंने दोस्त के चाचा और बड़े भाई को बोला कि माँ को निकाल लो, वो समझ गए, वो दोनों और तीन चार और लोग हिम्मत करके वहाँ आ गए और उस पत्थर को हटाया, मेरे दोस्त के बड़े भाई बिना देर किए माँ को हाथों में उठाकर मलबे के ढेर से नीचे उतर गए मैं भी उन लोगों के साथ नीचे उतर गया । हम लोग जैसे ही वहाँ से हटे वो दीवाल जो शायद इसी इंतजार में रुकी थी, भरभराकर गिर पड़ी । राम भक्त हनुमान से की गई प्रार्थना कभी खाली नहीं जाती ।
पूरी भीड़ माँ को बचाने के लिए हर जतन करने को साथ में दौड़ रही थी अस्पताल पहुंचने के लिए मुख्य मार्ग पर पहुंचकर कोई साधन जरूरी था, एक मिलिट्री का ट्रक जा रहा था, उसे भीड़ ने रोक कर सारी बात बताई तो ट्रक वालों ने माँ को  अस्पताल ले जाने की बात मान ली, ट्रक में पीछे ही माँ को लेकर जितने लोग  बैठ सके बैठ गए लेकिन परीक्षा अभी भी बहुत कठिन थी, ट्रक स्टार्ट नहीं हुआ, ट्रक ड्राइवर और मिलिट्री वाले परेशान हो गए, साथ में आये लोगों ने कहा कि हम धक्का लगा देते हैं, और भीड़ धक्का लगाकर ट्रक को अस्पताल तक ले आयी ।
कमलाराजा अस्पताल में बहुत जल्दी इलाज शुरू हुआ, चेहरे पर, हाथों में, पैरों में सभी जगह चोटें थीं, कुल 72 टांके लगे थे, शिवपुरी से बड़े भाई खबर मिलते ही आ गए । कुछ दिनों अस्पताल में रहने के बाद छुट्टी मिलने पर भाईसाहब माँ को शिवपुरी ले गए । मेरे दोस्त का पूरा परिवार मुझे अपना ही मानता था, दोस्त की माँ मेरा बहुत खयाल रखतीं थीं, कुछ दिनों तक उन्हीं के यहाँ रहा, मेरी किताबें, कपड़े, बर्तन कुछ भी नहीं बचा था । उस दिन मैं केवल पजामा और बनियान पहने रह गया था । पुराने मकान के पास से नाला निकला था जो लगातार बारिश होने से मकान की नींव को कमजोर करता रहता था, जिसके कारण मकान गिर गया था ।
माँ की धार्मिक आस्थाओं और भगवान पर भरोसे ने उन्हें इतने भयंकर हादसे में भी सुरक्षित रखा और भगवान की कृपा के साथ माँ के  सुरक्षा चक्र से मुझे तो खरोच भी नहीं आई थी ।
माँ पूर्ण स्वस्थ हो गईं लेकिन मुझे हॉस्टल में रहना पड़ा ।
मैं अपने इस सबसे खास दोस्त और इसके परिवार के साथ उन अंजान चेहरों को भी कभी भुला नहीं सकता जिन्होंने मेरी मदद की है ।
जा पर कृपा राम की होई ।
ता पर कृपा करें सब कोई ।

अवधेश सक्सेना- 25072020

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