सोमवार, 13 जुलाई 2020

कीर्ति प्रदीप वर्मा

उदास पार्क 

उदास पार्क
बड़बड़ा रहा था
अकेलेपन से कराह 
रहा था!!
धूल से सने झूले 
बेजान से पडे थे!
कल तक तो झूलने को
बच्चे कई लड़े थे। 
कोने में लगी कुर्सियां
मातम मना रही थीं, 
बुजुर्गों की टोलियां भी 
न जाने अब कहाँ थी? 
फव्वारे भी थे सूखे 
जो बच्चे हमसे रूठे। 
उदास तितलियाँ..
मूक है गिलहरी..
बजाती थी तालियाँ
नौनिहालों की टोली।
अंबियाँ लदी है टहनी
लगती हैं कितनी बोनी!
ये कैसी दूरियाँ है?
यह कैसा फासला था?
जब तोड़ते थे बच्चे 
उसमें ही तो मजा था।
आँखों में बस नमी थी 
बच्चों ही की कमी थी।
कोई पता बताओ 
कोई खोज के तो लाओ....….
               - कीर्ति प्रदीप वर्मा

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