उदास पार्क
उदास पार्क
बड़बड़ा रहा था
अकेलेपन से कराह
रहा था!!
धूल से सने झूले
बेजान से पडे थे!
कल तक तो झूलने को
बच्चे कई लड़े थे।
कोने में लगी कुर्सियां
मातम मना रही थीं,
बुजुर्गों की टोलियां भी
न जाने अब कहाँ थी?
फव्वारे भी थे सूखे
जो बच्चे हमसे रूठे।
उदास तितलियाँ..
मूक है गिलहरी..
बजाती थी तालियाँ
नौनिहालों की टोली।
अंबियाँ लदी है टहनी
लगती हैं कितनी बोनी!
ये कैसी दूरियाँ है?
यह कैसा फासला था?
जब तोड़ते थे बच्चे
उसमें ही तो मजा था।
आँखों में बस नमी थी
बच्चों ही की कमी थी।
कोई पता बताओ
कोई खोज के तो लाओ....….
- कीर्ति प्रदीप वर्मा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें