बादल की कलम से मुक्तक
जिन्हें ने पाला जी ने पोसा जिन्हें गोदी खिलाया है
वही अब हो रहे जालिम जिन्हें चलना सिखाया है
है यह रिश्ते खून के लेकिन नहीं लगते भरोसे के
हंसाते ही रहे जिनको उन्ही सब ने रुलाया है
गुलामी का तजुर्बा तो हसीनों से मिलता है
बना कर देख लो जोरू मर्द पीछे ही चलता है
जो कहती है वही करता सभ्यता आज रोती है
तभी तो गीत बादल का जमाने को अखरता है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें