कविता बेटी
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मैं डरी सी ,सहमी हूं।
न , मैंने कोई अपराध किया
ना किसी का दिल दुखाया
फिर भी मैं बाहर आने से
डरती हूं ।
क्योंकि मैं जिसकी कोख में हूं,
वह भी डरीसी है,
अकेले में प्यार भरी बातें करती,
खूब प्यार लुटाती,
लेकिन सब को देख कर,
सबकी बातें सुनकर, घबराती
कि अपने अंश को
धरती पर लाने के लिए,
किस, किससे लडूंगी।
रूढ़िवादी परिवार से,
सामाजिक परंपराओं से,
दूषित घूरती निगाहों से,
अपनों में ना मानवीयता है।
अविश्वास, कि भौतिकता की
चकाचौंध से।
इन्हीं बातों की सोच से,
धड़कते हृदय की गूंज से
मैं सहमी और डरीसी हूं।
अभी मेरा अस्तित्व ही नहीं है
जिसमें मेरा वजूद है।
उसको ही संबल,सहारा
अगर मिल जाए,
जिससे कि हमें भी इस
दुनिया में आने का
अवसर मिल जाए।
मैं प्रार्थना रत, आने को अनवरत
सतत प्रयासरत
सपने सजाए मैं झुकी हूं।
मैं डरी सी सहमी सी हूं
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पुष्पा मिश्रा आनंद
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