तुकान्त कविता शीर्षक आदमी।
अंदर का दर्द कोई , ना देख ले समझ ले।
करता है ढोंग हरदम , हंसने का आदमी ।
आंसू नहीं हैं कोई ,न सिसकियां सुनाएं ।
दिखता नहीं किसी को , रोता है आदमी ।
न है दिया न वाती ,पर लौ है टिमटिमाती ।
स्नेह तेल सूखा , बुझता है आदमी ।।
पराये तो हैं पराये , अपनों के जख्म से ।
कब कब और कितनी बार, मरता है आदमी।
बन्दूक है न गोली , न तीर है न भाला ।
संघर्ष की लड़ाई , लड़ता है आदमी ।
भूला है आत्मा को , पाने को हर ऊंचाई ।
कैसा भी काम कोई ,करता है आदमी ।
सृष्टि की है ये रचना ,नर नारी अन्य प्राणी ।
सामाजिक बंधनों में , जकड़ा है आदमी ।
कितना भी कुछ भी कर ले , आखिर में देह ये तो ।
एक दिन जले चिता में ,कोई हो आदमी ।
रचनाकार
शिखर चंद जैन " शिखर " गंज बासौदा
9425615029
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