ग़ज़ल
कभी चुप, कभी गुम
कभी हम, कभी तुम
जहां तुम वहीं चुप
जहां हम वहीं गुम।
चलो साथ बस चुप,
चलो साथ बस गुम,
वो चुपचाप बस हम तुम,
वो शामो- सहर बस गुम।
ये है कौन जो हमको है, आवाज़ देता,
कहो तो रहें चुप, रहें हम जरा गुम,
तुम्हारी नज़र की नवाज़िश है ये भी,
कि नश्तर चुभोते हौले- हौले जरा तुम।
वो किस्से पुराने, वो कहानी पुरानी,
हमारी तुम्हारी रवानी पुरानी,
ना ढूंढो वो खत तुम,
ना ढूंढो हमें तुम,
लकीरें हमारी ये केहती हैं हमसे,
लड़ोगे कहां तक, हमसे भला तुम।
लौटा दो सारी, वो गूंजे हमारी,
अब अपनी ही आवाज़, अब हमसे है, अब गुम।
नेहा सक्सेना
शिवपुरी, म. प्र.
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