विकास की व्यथा
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चहुँ ओर नदियाँ सूखती ।
चहूँ ओर झीलें खो गयीं ॥
बिन नीर तड़पती मछलियां हैं पूछती
विकास की कैसी ये गति हो गयी ॥
चहूँ ओर दूषित है हवा ।
चहूँ ओर दूषित है फिजां ॥
पर्यावरण पर गिरती बिजलियाँ हैं पूछती
विकास की कैसी ये गति हो गयी ॥
चहुँ ओर घटते बाग है
चहुँ ओर बरसती आग है
चहुँ ओर तपती ये धरा है, पूंछती
विकास की कैसी ये गति हों गयी ॥
चहुँ ओर खिसकते हिमशिखर
चहुँ ओर पिघलते ग्लेशियर
चहुँ ओर सिसकती जिंदगियां है , पूछती
विकास की कैसी ये गति हों गयी ॥
विशाल चतुर्वेदी "उमेश "
जबलपुर
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