जिंदगी कुछ डरी डरी- सी रहने लगी है आजकल।
खामोशी दबी दबी जुबां से कुछ कहने लगी है आजकल।
कुर्सी कितना ही ढिंढोरा पीटे,हमें क्या फर्क था,
अफसोस बहुतों की कलम उसे गाने लगी है आजकल।
जिस जगह से फूटा था कभी ,प्रेम का झरना,
विष की नदी वहीं से बहने लगी है आजकल।
आँगन के एक ओर लगाई थी जो तुलसी,छूने पर हर हाथ को,झुलसाने
लगी है आजकल।
अपने दर्द किताब की को जरा -सा ही खोला कि,
श्रोता को नींद या जम्हाई आने लगी है आजकल।
..डॉ.सुषमा जादौन। भोपाल।
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