*सोचती हूं*
जो कभी सूरज की रोशनी में झांक पाते,
तो तुम जान पाते, मैं क्या सोचती हूं
वो आवाज़ जो तुमको भी भेद पाती,
तो तुम जान पाते, मैं क्या सोचती हूं
कभी तुम्हारे ज़िद के पर्दे, कभी तुम्हारी आंखों से सरकते,
तो तुम अपनी सीमित खिड़कियों के आगे देख पाते, मैं क्या सोचती हूं
आंखों से कभी जो आदतों की पल्कें तुम हटाते,
तो तुम जान पाते, मैं क्या सोचती हूं
नेहा सक्सेना
शिवपुरी, म. प्र.
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