आज की कविता-
*घर*
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घर ही घर का आईना,
घर ही है प्रतिबिंब।
घर के साथी बन रहे,
एक दूजे का अवलम्ब।।
देहरी दे रही हिदायत,
उस पार जाना है मना।
प्रवेश द्वार जोड़े हाथ खड़ा,
आज सजग प्रहरी बना।।
दीवारें सच बोलती,
है बाहर सब आडम्ब।।
घर ही घर...........
बैठक में बैठक चलें,
कैसे पाएं निजात।
कामकाज सब ठप्प है,
बिगड़ रहे हालात।।
खुद ही खुद का बन खुदा,
जो चाहे सो कर आरंभ।
घर ही घर..........
रसोई सुर में गा रही,
एक अनूठा गीत।।
मुझको सोई ना समझना,
गर भूखा हो कोई मीत।।
तत्पर हूं,तैयार हूं,
अहर्निशि अबिलंब।।
घर ही घर.......
पूजा स्थल की वेदिका,
महकाती संदेश।
धूप-दीप नैवेद्य से,
खुश होंगे गौरी-गणेश।।
जय जय भोलेनाथ की,
जय माता जगदंब।
घर ही घर..........
नल-जल का कहना यही,
धोना हाथों को कई बार।
सुबह -शाम काढ़ा पियो,
प्रतिरक्षा का आधार।।
दो गज की दूरी से निभें,
रिश्ते नाते संबंध।
घर ही घर..........
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दिनांक- 7 जुलाई,2020
पुष्पा शर्मा
ग्वालियर,मध्य प्रदेश
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