शिखर के दोहे
समता भाव विवेक जो ,धारण करता नेक ।
विनय भाव भी हो" शिखर ", बिन पर उड़े स्वमेव ।।
करें क्रोध और ईर्ष्या ,हो न विनय विवेक ।
ईंधन अगनी बिन "शिखर " ,जल जाये स्वमेव ।।
वाणी से मीठी नहीं , कोई जग में होय ।
यह ऐसी औषधि "शिखर " , रोग कभी ना होय ।।
तर्क वितर्क करो नहीं , मन को लो समझाय । बोलचाल रखियो "शिखर " ,पुनः बात बन जाए ।।
सकारात्मक सोच को , दीजे सदा बढ़ाय ।
पीछे की भूलो " शिखर ",आगे की चित लाय ।।
चिता नहीं चिंता बड़ी ,कह गए पहले लोग ।
चिंता से क्या हो "शिखर " , कर्मों का फल भोग ।।
जितना जिसके भाग्य में ,उतना पैदा होय ।
वर्षा या सूखा "शिखर " ,बन जाते हैं योग ।।
सुख दुख छाया धूप है , "शिखर "सदा न होय । घटे बढ़ै होवे खतम , छुपत प्रकाशक दोय ।।
बाँटे से बढ़ जात है ,घटत छुपाये जान ।
ज्ञान निधि ऐसी "शिखर " , मिले उच्च स्थान ।।
बहता पानी शुद्ध है ,थमत अशुद्धि होय।
आये जाये दौलत "शिखर "सुख का कारण होय ।।
रचनाकार - शिखर चंद जैन" शिखर " गंजबासौदा 9425615029 7999184370
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें