शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

कीर्ति प्रदीप वर्मा

*भूत प्रेत*


बचपन में माँ कभी-कभी
रहती थी मैं डरी डरी!!
कभी अंधेरे में डर जाती 
या परछाई सी दिख जाती,
पेड़ों के पत्ते हिलते थे,
 चूहा या बिल्ली मिलते थे !!
अंधियारे में न जाती!!
 तेरे पल्लू में छुप जाती। 
बचपन में मां कभी-कभी
 रहती थी मैं डरी डरी!!
 तब तू ने ही मंत्र बतलाया
डर से लड़ना सिखलाया।
अब भी तो बहुत सताते हैं !!
बहुत मुझे डराते हैं!!
कभी टैक्सी ड्राइवर या
कंडक्टर बन जाते हैं 
कभी अकेले में ट्रेनर
या क्लीनिक में हो डॉक्टर
भीड़ में चलते चलते ही
अंकल धक्का दे जाते
 या फिर  बस में पीछे से 
दादा कोहनी से सताते है !!
कभी शाला में टीचर
जो मेरी कापी जांचते है,
और आंखों ही आंखों में
 मेरा भूगोल नापते हैं!!
अब तो मैं  हर पल माँ!!
बस रहती हूँ डरी-डरी
सोचती हूं इतने जल्दी
क्यों हो गई माँ में बड़ी
इससे तो बचपन अच्छा था
भूतों का संग ही सच्चा था।
अब मंत्र काम न आते है
मां जिंदा भूत सताते हैं!!!
माँ जिंदा भूत सताते हैं!!!
         -कीर्ति प्रदीप वर्मा
        माखननगर, बाबई, मप्र

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