शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

अपूर्वा श्रीवास्तव

#छंद_मुक्त कविता#

    🙏-: मजदूर :-🙏

कितनी रातें ही उसने , ऐसे बिता दी
पैदल चल भूख प्यास , सब मिटा दी

सफर कठिन था , मगर हौसला मजबूत था
पैसा नहीं था , मगर लौटना जरूर था

पैरों में छाले थे , कंधो पर बोझ
बच्चे भूखे प्यासे थे , तड़पे थे रोज़

तपता भूभाग रहा , मरता वहां इंसान था
लकीरें आड़ी टेढ़ी , मजदूरी का निशान था

अख़बार पढ़ते , तो उन्हीं का नाम था
खबर देखते , तो उन्हीं का ज्ञान था

बच्चे - बूढ़े - लंगड़े , बस आगे बढ़ते जाते
इंसान हैरानी में , बस यहीं देखते जाते।

कुछ पल स्मृतियां बन जाती है
देखते देखते ख्वाब बन जाती है।

बचपन का अंत नजदीक होता है
जब जज्बातों पर  ग्रहण होता है

खुशियां जलकर राख होती है
जब बदलते रंगो का कहर होता है

हुशियारी भी अक्सर बदल जाती है
बेरंगे ढंग में ढल जाती है

इंसान खुदको कठोर बना लेता है
जब इंसानियत की मिसाल टूट जाती है

घुटता रहता है इंसान अंदर ही अंदर
जब निशान अपनी ही परछाई छोड़ जाती है।

#अपूर्वा श्रीवास्तव
🙏शिवपुरी (म.प्र)🙏

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